“हिमाचल प्रदेश में धर्म”

“हिमाचल प्रदेश में धर्म”

धर्म संस्कृति का एक अनिवार्य हिस्सा है क्योंकि धार्मिक विश्वास और पूजा-पद्धतियां संस्कृति के सृजन और पनपने में भी सहायक हैं.

धर्म को किसी भी परिभाषा में सीमित करना असंभव है, लेकिन कहा जा सकता है कि धर्म का आध्यात्मिक पक्ष मानवोद्धार से जुड़ा है और इसका कर्म-काण्डिक पक्ष इस आध्यात्मिक पक्ष को प्राप्त करने का एक साधन है. लेकिन इतिहास में कार्मकाण्डिक पक्ष सर्वोपरि रहा है. पहाड़ों के रिवाजों में अलग-अलग धार्मिक मान्यताएं और पूजा-पाठ हैं. यहां की धार्मिक मान्यताएं किसी विशेष सम्प्रदाय तक नहीं सीमित हैं. यहां आर्य और अनार्य दोनों सिद्धांतों का एक मिश्रण है.

भारतीय संस्कृति के प्रतीक ब्रह्मा, विष्णु और महेश की त्रिमूर्ति की पूजा से लेकर कई स्थानीय देवताओं की पूजा की जाती है, साथ ही सूर्य, चांद, सितारों, पहाड़ों, नदियों और वक्षों सहित. मानवों का दैवीकरण और देवताओं का मानवीकरण दो प्रकार के होते हैं: पहला, किसी मानव को दैवी गुणों से युक्त होकर दानवों, भूत-प्रेतों आदि से दूर करके देवता के रूप में पूजा जाता है; दूसरा, किसी मानव को असाधारण हालात में मर जाने पर स्थानीय लोगों को डराने के लिए देवता के रूप में पूजा जाता है.

किन्नौर आदि क्षेत्रों में बौद्ध धर्म के कुछ पहलुओं ने धार्मिक जीवन को प्रभावित किया है, लेकिन ध्यानपूर्वक देखा जाए तो वहां का धार्मिक जीवन लगभग समान है जैसा कि राज्य के अन्य भागों में है, हालांकि लामाओं ने ब्राह्मणों की अपेक्षा अधिक प्रभाव डाला है. किन्नौर के प्रमुख देवताओं में से एक है शुआ परगना की ‘चण्डिका’, जो वास्तव में एक हिन्दूकाली है.

हिमाचल प्रदेश में पशुओं को देवी-देवताओं के नाम पर बलि चढ़ाने के कारण कुछ लोगों ने इसे पाश्विक धर्म भी कहा है, लेकिन ऐसा नहीं है. देश-प्रदेश में बलि चढ़ाना एक पुराना रिवाज है. 2014 में प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका पर सार्वजनिक उत्सवों और मेलों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाया.

यकीन है कि पहाड़ी लोगों का धर्म हिंदु धर्म की एक शाखा है, जिसमें अधिकांश लोग शक्ति या काली के पूजक हैं, जिसका प्रमाण अधिकांश देवी मन्दिरों से मिलता है. शिव पूजकों का स्थान काली-पूजकों के बाद दूसरा है, जो महासु, श्रीगुल और महादेव जैसे पूजकों से मिलता है. नारसिंह और परशुराम की पूजा से वैष्णव-पूजा का प्रमाण मिलता है, लेकिन विष्णु के बहुत कम लोग हैं.

प्रदेश के कई क्षेत्रों में देवताओं की योजनाबद्ध पूजा की जाती है. देवी-देवताओं की पूजा और उनका मूल स्वरूप निम्न क्षेत्रों में कुछ अलग है. निम्नलिखित क्षेत्रों को छोड़कर, देवी-देवताओं के अधिकांश वर्गाकार मन्दिर हैं, जिनके निर्माण में लकड़ी का प्रयोग किया गया है. मन्दिरों में देवी-देवताओं की मूर्तियां पत्थर से कम हैं, बल्कि सोने-चांदी, पीतल या अन्य धातुओं से बनाई गई हैं. प्रत्येक देवता के नाम पर छोटे या बड़े मेले होते हैं. मेले क्षेत्र संस्कृति का प्रतीक हैं.

“शिव की पूजा:”

शिव का भारतवर्ष में महत्वपूर्ण स्थान है. उसे सृष्टि का संहर्ता और पालनकर्ता मानते हैं. शिव के लगभग सौ नाम लिये जाते हैं, जिनमें महादेव सर्वोपरि है और सब देवताओं से बड़ा है. शिव पुराण और उत्तम पुराण में शिव की महिमा है. शिवजी को हिमालय से अटूट संबंध रहा है और माना जाता है कि वे हिमालय के उच्च शिखरों पर रहते हैं. शिवालय एक शिव मंदिर है. शिवालय में शिवलिंग की स्थापना है, नहीं कोई मूर्ति. इसे शिवपिंडी भी कहते हैं. हिमाचल प्रदेश में शिव के बहुत से प्रसिद्ध मंदिर हैं, जैसे कि कांगड़ा में बरोह महादेव, नर्वदेश्वर महादेव, सराज क्षेत्र में ईश्वर महादेव, कुल्लु में शमशी महादेव, बीणी महादेव, जगेश्वर महादेव, बुशैहर में बुशैहर महादेव, फेटीचनूल में बाँगडू महादेव, अल्बा में कुलखेत्र महादेव और शिमला जिला में कुमारसेन.

शक्ति की पूजा: पहाड़ों में ही नहीं, पूरे भारत में देवी पूजा की जाती है. सृष्टि के मूल में देवी या शक्ति हैं. शिव की सारी शक्ति सती या पार्वती से आती है. भारतीय देवताओं या महादेवों में कोई शक्ति या प्रेरणा नहीं है. देवी को कई नामों से पुकारते हैं, जिनमें काली, तारा, चिन्मा, मातंगी, त्रिपुरा सुन्दरी, त्रिपुरभैरवी, भुवनेश्वरी, कमला, बंगला और जगदम्बा भी शामिल हैं। वह हर देवता से ऊपर हैं. विपत्ति आने पर देवताओं, जैसे इन्द्र, भी रक्षा के लिए जगदम्बा के पास भागते हैं.

सती ही भारत को एक सूत्र में जोड़ने वाली देवी है. जब उसने अपने पिता दक्षराज के यज्ञ में अपमान के कारण अपने प्राण दे दिए, शिवजी ने उनके मृत शरीर को उठा कर ताण्डव शुरू किया. देवी को प्रलय से बचाने के लिए विष्णु ने उसके शरीर के 51 स्थानों पर टुकड़े कर दिए. उनकी आंखें नैनादेवी में और महामुद्रा (योनि) कामरूप (आसाम कामाख्या मंदिर) में मानसरोवर में पड़ी. अन्य भाग अलग-अलग स्थानों पर पड़े हैं. वहीं उसकी तीर्थस्थलों के रूप में मंदिर बनाए जाते हैं. इस तरह सती का शरीर पूरे भारत को समा गया.

हिमाचल में कई देवी मंदिर हैं. देवी को प्रसन्न करने के लिए मिष्ठान से लेकर पशुओं की बलि दी जाती है. बीसवीं शताब्दी के शुरू तक, देवी को प्रसन्न करने के लिए मनुष्य की बलि देने के प्रमाण हैं. रामपुर बुशहर में मुंडा की प्रथा सिर्फ मनुष्य की बलि से संबंधित थी. बकरे को बलि चढ़ाना आम है. भैसे की बलि आज भी कहीं-कहीं दी जाती है. पैसा महिषासुर का दूसरा रूप है. नवरात्रों में कन्याओं को खाना खिलाने और उन्हें लाल कपड़े देने से देवी प्रसन्न होती है. देवी स्थानों पर नवरात्रों में मेले लगते हैं क्योंकि उन दिनों देवी के दर्शन करना बहुत बड़ा पुण्य है. हिमाचल प्रदेश में देवी के कई मंदिर हैं, जिनमें बिलासपुर में नैणादेवी, कांगड़ा में ज्वालाजी व ब्रजेश्वरी देवी, ऊना में चिन्तपूर्णी आदि देश भर में प्रसिद्ध हैं. सिरमौर क्षेत्र के ऊपरी तथा मध्य भाग में मिंधल देवी, बाला-सुन्दरी, नगरकोटी देवी, भुनाई देवी, कुरिन देवी, कुआसन देवी, त्रिपुरा सुन्दरी, गजाशिन देवी, हिडम्बा देवी, हाटकोटी की हाटेश्वरी देवी, जुन्गा की तारा देवी और धरेच की अष्टभुजा देवी के मंदिर भी बहुत प्रसिद्ध हैं. रामपुर के सराहन में भीमाकाली का प्रसिद्ध मन्दिर है. किन्नौर में चण्डिका मंदिर प्रसिद्ध है. प्रत्येक मंदिर की स्थापना को कोई न कोई लोककथा बताई जाती है. जिन सबका यहां विवरण देना असंभव है. प्रदेश में कोई गांव या कस्बा नहीं है जहां कोई मंदिर या शिवालय नहीं है.

सिद्ध-पूजा पहाड़ों में महाभारत से भी पहले से प्रसिद्ध है. पुरातन काल में, तपस्या करके अद्भुत शक्तियां प्राप्त करके उनका उपयोग करने वाले व्यक्ति को सिद्ध कहा जाता था.

गुगापूजा:

गुगा को मुख्यतः सर्पों से बचाने वाले देवता के रूप में पूजा जाता है, लेकिन उसे इच्छा-पूरक, देवता और आपत्ति निवारक देवता के रूप में भी पूजा जाता है. हिमाचल प्रदेश के निम्न क्षेत्र में प्रत्येक या दो तीन गांव में से एक में गूगा के मंदिर बनाए गए हैं. ये मंदिर प्रायः चारों तरफ से खुले होते हैं और इनमें गूगा और उसके सहयोगियों की पत्थर या मिट्टी की मूर्तियां हैं. राजस्थान के “गूगा-मड़ी” में स्थित गूगा मंदिर का नकल है, इसलिए इसे “गूगा-मड़ी” कहा जाता है. लोककथाओं के अनुसार, गूगा धरती में गूगा-मड़ी में छिपा था. रक्षा बंधन के दिन से हर वर्ष गूगा पूजक गांवों में घर-घर घूमता है.

कर गूगा लोकगीत गाते हैं. प्रत्येक घर में थाली, अन्न और कुछ नकद रुपये रखकर धूप जला कर गूगा मण्डली का स्वागत किया जाता है. इन दिनों, जो भी चाहे, गूगा मण्डली को बुलाकर पूरी रात गूगा-गायन करवा सकता है. गूगा-नवर्मी से पिछली रात मण्डली के सभी लोग गूगा-मंदिर (गूगा-मंडी) में गूगा-गाथा गाते हैं— गाँव की जनता सुनने आती है. दूसरे दिन वहां मेला है. चम्बा में गूगा को ‘मुंडलिख’ कहा जाता है.

लोक गाथा कहती है कि गूगा राजस्थान के गदरेड़ का राजा था. गूगा की माता को बासल या बाछल कहा जाता था. उसका माता-पिता कासल या काछल था. गुरु गोरखनाथ की बाछल भक्त थी, इसलिए गूगा का जन्म फल देने से हुआ था. काछल ने गुरु को धोखा देकर फल खा लिया. उसके दो लड़के, अर्जुन और सुर्जन, गूगा से शत्रुता करते थे और उसे मार डालते थे. उनकी हत्या गूगा ने की. नाराज बाछल ने गूगा को मुंह नहीं दिखाने को कहा. माना जाता है कि गूगा धरती पर छपन हो गया था, लेकिन वह चुपके से अपनी रानी सूरीहल (सूलिपर) से मिलने जाता था. उसमें दैवी शक्तियां होने से वह पूजी जाती थीं. हाल ही में, गूगा मंडली प्रदेश के निचले इलाकों में एक महत्वपूर्ण उत्सव बन गया है.

नार-सिंह की पूजा:

नारसिंह को “नृसिंह” का ही बदनाम रूप मानते हैं. निम्न भाग में नारसिंह के कुछ मंदिर हैं, बिलासपुर में धौलरा का मंदिर सबसे प्रसिद्ध है. नारसिंह के मंदिर कांगड़ा, कुल्लू, चम्बा और मण्डी में भी हैं। यह देवता अक्सर खेल में स्त्रियों पर सवार या मोहित होकर भविष्यवाणियां करता है. इसे वीर या सीडु भी कहते हैं. अधिकांश स्त्रियां इसका लक्ष्य हैं. इसकी पूजा सुकेत (सुन्दरनगर) में ‘पाखन’ नाम से की जाती है. कई जगहों पर उसकी पूजा कालिया वीर, शमसान भूत या बघेरा के साथ की जाती है. इसे गूगा के बजीर के रूप में भी पूजा जाता है. गूगा की मूर्ति और नारसिंह की मूर्ति भी लगी हैं. नारसिंह की पूजा का क्षेत्र प्रदेश में बहुत सीमित है.

नाग की पूजा:

वैसे तो सारे भारत में नाग पूजा की जाती है, लेकिन पहाड़ों में यह अलग है. लाल सांप को देवता का प्रतीक मानकर पूजा करते हैं. लोगों का मत है कि लाल सांप बुजुर्गों द्वारा दबाए गए धन को बचाता है. हिमाचल प्रदेश में कई नाग देवताओं के मंदिर हैं, जैसे कामरु व महुनाग (मण्डी), देट व वालिया नाग (कांगड़ा), कंधारल-घूंड नाग (शिमला), बढुआ-नाग (किन्नौर), चमौण-नाग (कुल्लू) तथा वासुकि नाग (चम्बा). ज्यादातर नाग मन्दिरों में मानवाकार की पत्थर की मूर्तियां हैं जिनमें सांप सिर पर फन फैलाकर बैठा है. इसके अलावा, इन मंदिरों में लोहे, चांदी या किसी अन्य धातु से बनाई गई सांप की मूर्तियां भी हैं.

विभिन्न स्थानीय देवता:

सिरमौर का श्रीगुल या सरगल देवता: यह सिरमौर की चूड़धार का प्रसिद्ध देवता है, जो उसके शिखर पर रहता है. मानव ने श्रीगुल देवता को अपनी अद्भुत शक्तियों के कारण देवता बनाया था. इसके बारे में कई लोक गाथाएं हैं. जुब्बल में एक लोककथा है कि साया या शादना गांव का मुखिया भोखरू अपना राज-पाट देवी राम बजीर को देकर कश्मीर चला गया. उसने वहां पूजा की और फिर अपने गांव चला गया. उसके दो पुत्र थे: श्रीगुल और चन्देश्वर. जब उनके माता-पिता मर गए, श्रीगुल हरिद्वार गया. रास्ते में वह एक शिवभक्त चूहडू से मिले. वापिसी पर दोनों चूड़धार आ गए. जबकि चहूडू वहां पूजा करता रहा, श्रीगुल दिल्ली चला गया. वहाँ उसने एक व्यक्ति को मार डाला, जो एक गाय को मार रहा था.

मुसलमान शासक ने उसे कैद करने के लिए लोग भेजे, लेकिन वे नहीं कर सके. राजा ने स्वयं आकर उसके पैर चूमे. श्रीगुल को उसी समय पता चला कि एक दैत्य गाय का मांस चूड़धार पर फेककर उसे अपवित्र कर रहा है. वह एक सहानलवी घोड़ा और एक चूड़धार था. उसने “औरापोटली” नामक पत्थर बनाया, जो अभी भी चूड़धार में पड़ा है. चूहडू ने श्रीगुल को घर बनाया. देवी राम और उसके पुत्रों ने वहां श्रीगुल मंदिर बनाया. श्रीगुल की आज्ञानुसार उन्होंने और भी मंदिर बनाए. मंदिरों में श्रीगुल और चूहडू की मूर्तियां भी लगाई जाती हैं. श्रीगुल का वजीर चूहडू है. श्रीगुल के मंदिर मानल, देओणा, बांदल, जतक और नाओणी में हैं।

कुछ धार्मिक मान्यताएं:

पहाड़ी समाज और उनके देवी-देवताओं पर कुछ विश्वास है- आज भी लोग उनको मानते हैं और उनके अनुसार चलते हैं, चाहे आप उन्हें अंधविश्वास कह लें.

गुर के माध्यम से ‘खेल’ में जो भविष्यवाणी की जाती है, उस पर लोग पूरी तरह से विश्वास करते हैं और उस पर अमल किया जाएगा, भले ही कोई हानि उठानी पड़े. यदि देवता किसी घर को रहने योग्य नहीं बताता, तो उसे छोड़ दिया जाएगा, चाहे वह कितना महंगा हो. देवी-देवता भी बीमारियों का इलाज करते हैं. और स्वस्थ होने पर उनसे भेंट करनी पड़ती है. देवी-देवताओं से अपनी सांसारिक इच्छाओं को पूरा करने के लिए भी प्रार्थना की जाती है, जैसे शादी करना, एक लड़का पाना, परीक्षा में सफल होना, एक नौकरी पाना आदि. इच्छा पूरी होने पर देवता को वह भेंट चढ़ानी होती है जो मानी गई है या जो वे चाहते हैं.

देवी-देवता को मानी गई वस्तु या भेंट नहीं देने पर वे “खोट” कर सकते हैं, यानी कोई अपकार कर सकते हैं. पहाड़ी लोग अदृश्य शक्तियों की आलोचना नहीं कर सकते क्योंकि वे प्रकृति के इतने करीब हैं.

 

 

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