पशु पालन

पशु हिमाचल के लोगों के आर्थिक जीवन में बहुत महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि हिमाचल के 90 प्रतिशत ग्रामीण परिवार पशुपालन करते हैं, लगभग 22 लाख पशु हैं, जो कृषि में भी सहायक हैं। 1994 में राज्य में पशु देखभाल के लिए लगभग 230 हस्पताल और 514 डिस्पैंसरियां थीं। 2008 में इनकी संख्या 7 पोलीक्लीनिक, 317 पशुचिकित्सालय, 28 केंद्रीय पशुचिकित्सालय और 1765 पशुचिकित्सालय हो गई थी। 2012 की गणना के अनुसार प्रदेश मैं 21,49,259 विभिन्न प्रकार के पशुधन थे, जो किसानों की आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं।

पशु विकास कार्यक्रमों में क्रास-ब्रीडिंग के लिए पशुओं का चयन (जिसमें जर्सी किस्म के पशुओं को अधिक उपयोगी पाया गया है) जर्सी गायें प्रतिदिन 5.5 लीटर दूध देती हैं; कृत्रिम गर्भाधान के लिए पशुपालन केंद्रों की खोज; और कमांद (मंडी) और बागथान (सिरमौर) में पशुपालन केंद्रों की स्थापना; विजातीय बछड़ियों का पालन-पोषण करने के खर्च को कम करने के लिए सरकार लघु और सीमांत किसानों को बछड़ियों का संतुलित आहार देती है।

दूध पर आधारित उद्योग

राज्य में हिमाचल प्रदेश दुग्ध संघ डेरी विकास कार्यक्रम चलाता है। दूध संघ में 822 समितियां है इन समितियों में 37,400 लोग हैं, जिनमें 185 महिला डेरी सहकारी समितियां हैं। दुग्ध संघ गांवों के दुग्ध उत्पादकों से अतिरिक्त दूध लेता है और डेरी सहकारी समितियों द्वारा इसे बाजार में बेचता है। दुग्ध संघ वर्तमान में 22 दुग्ध अभिशीतल केंद्र चलाता है, जिनकी कुल क्षमता 86,500 लीटर दूध प्रतिदिन है; 8 दुग्ध प्रसंस्करण प्लाट, जिनकी कुल क्षमता 85,000 लीटर दूध प्रतिदिन है; और दत्तनगर, शिमला में 5 मीट्रिक टन दूध प्रतिदिन बनाने वाला एक मिल्क पाउडर प्लांट। हमीरपुर के भोरंज जिले में एक 16 मीटर प्रतिदिन क्षमता वाला पशु आहार संयंत्र भी बनाया गया है। 2016-17 में 13.28 लाख टन दूध था, लेकिन 2017–2018 में 14.48 लाख टन हो गया। राज्य में हिमाचल प्रदेश दुग्ध फैडरेशन ने डेरी विकास कार्यक्रम चलाया है। 2009 तक फैडरेशन ने 628 समितियां बनाईं, जिनमें 34,587 सदस्य थे, और 120 महिला डेरी सहकारी समितियां भी काम करती थीं। दुग्ध फैडरेशन फिलहाल २२ दुग्ध शीतन केन्द्रों को चलाता है, जो 60,000 लीटर दूध प्रतिदिन उत्पादन कर सकते हैं।

प्रदेश ने 2016-17 में 13 लाख 28 हजार टन दूध उत्पादन के साथ एक नया रिकॉर्ड बनाया. यह पहली बार था जब एक साल में दुग्ध उत्पादन का ग्राफ 13 लाख टन से अधिक हो गया था। दूध उत्पादन के आंकड़े बताते हैं कि 2011-12 के बाद से उत्पादन का ग्राफ हर साल बढ़ा है। जिला मंडी और कांगड़ा इसमें सबसे अधिक योगदान देते हैं। 2006 तक, जिला मंडी और कांगड़ा के पशुपालक दो सौ लाख टन से अधिक दूध उत्पादन करते रहे हैं। 2016-17 में जिला मंडी मिल्क उत्पादन में सबसे आगे रहा है और राज्य में 248 हजार टन दूध उत्पादन हुआ। 2015-16 में जिला मंडी 234 हजार टन दुग्ध उत्पादन के साथ दूसरे स्थान पर था और 2016-17 में जिला कांगड़ा को एक पायदान नीचे धकेल दिया। इस सूची में, 230 हजार टन दुग्ध उत्पादन के साथ जिला कांगड़ा दूसरे स्थान पर था। 2015-16 में 235 हजार टन दूध उत्पादन की तुलना में 2016-17 में जिला कांगड़ा में दूध उत्पादन में थोड़ी कमी हुई। जिला शिमला 165 हजार टन से अधिक दूध की पैदावार के साथ तीसरे स्थान पर है, जबकि सोलन 11 हजार टन से अधिक दूध की पैदावार के साथ चौथे स्थान पर है।

2017-18 में बिलासपुर में 79 हजार टन, हमीरपुर में 89 हजार, चंबा में 93 हजार, किन्नौर में 12 हजार, कुल्लू में 92 हजार, लाहुल-स्पीति में आठ हजार, सिरमौर में 99 हजार और ऊना में 98 हजार टन दूध उत्पादित हुए।

ऊन-विकास और भेड प्रजनन: लोगों की आय का प्रमुख स्रोत ऊन, मांस, खाद और खाद है। वर्तमान में राज्य में उन्नत भेड़ पालन के लिए ज्यूरी (शिमला), नंगवाई (मण्डी), ताल (हमीरपुर), कड़छम (किन्नौर) और सरोल (चम्बा) में भेड़ पालन केंद्र खोले गए हैं। 1995 के अंत तक इन केंद्रों में लगभग 2600 भेड़ थे। यह संख्या हर साल बढ़ती जा रही है।लघु और सीमांत किसानों और कृषि मजदूरों को सरकार कम ब्याज दरों पर ऋण देती है ताकि वे भेड़ों को पालन कर सकें। 1991-92 में 15.67 लाख किलोग्राम ऊन उत्पादित हुआ था। 2008 में 16.60 लाख किलोग्राम बनाए गए थे। नंगवाई (मण्डी) और कन्दवाड़ी (कांगड़ा) में भी अंगोरा खरगोश फार्म खोले गए हैं।

कुक्कुट पालन : किसानों की आय का एक अच्छा उपाय भी मुर्गे-मुर्गी पालना है। इस समय राज्य में सुधरी किस्म के मुर्गे-मुर्गियां विकसित करने के लिए 14 केंद्र हैं। शिमला, बिलासपुर और ऊना जिलों में पशुधन (कुक्कुट) विकास कार्यक्रम केंद्र सरकार की सहायता से चलाया जाता है. इस कार्यक्रम के तहत लघु और सीमांत किसानों को सस्ती दरों पर ऋण दिया जाता है। 2009 में कुक्कुट पशुधन की संख्या लगभग 6,64,039 थी, जो 2012 में 11,04,476 हो गई।

  • प्रदेश में 2015-16 में 1100 लाख अंड़ों का उत्पादन लक्ष्य रखा गया था, लेकिन यह लक्ष्य मात्र 73.79 प्रतिशत पूरा हुआ, और 811.67 लाख अंड़ों की पैदावार हुई। लक्ष्य से अधिक अंड़ों की पैदावार का आंकड़ा 101.28 प्रतिशत रहा। पिछले आंकड़े को देखते हुए, प्रदेश में 2016 से 2017 तक 857.6 लाख अंड़ पैदा हुए थे। हिमाचल प्रदेश में प्रति व्यक्ति सालाना उपलब्ध अंडे काफी कम हैं। राष्ट्रीय स्तर पर प्रति व्यक्ति उपलब्ध अंडों का औसत 66 है, लेकिन प्रदेश में 2016 से 2017 तक यह मात्र 14 था।
  • 2015-16 के मुकाबले क्षेत्र में थोड़ी बढ़ोतरी हुई है, लेकिन राज्य अपने ही 2014-15 के 15.8 के आंकड़े के पास नहीं पहुंच पाया। जिला बिलासपुर प्रदेश में प्रति व्यक्ति वार्षिक उपलब्ध अंडों के आंकड़े में सबसे आगे है, जो 2016 से 2017 तक 32-6 रहा था। प्रदेश में पहले स्थान पर रहने के बावजूद जिला बिलासपुर ने पिछले पांच वर्षों में सबसे खराब प्रदर्शन किया है। जिला बिलासपुर में 2012–13 में यह आंकड़ा 42.4 रहा था, जो 2013–14 में 43.3 तक पहुंच गया और 2014–15 में 43.5 तक पहुंच गया।
  • 2015-16 में 38.8 तक गिरने के बाद यह आंकड़ा 2016-17 में 32.6 पहुंच गया। उधर, जिला लाहुल-स्पीति में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष उपलब्ध अंडों का ग्राफ लगातार गिर रहा है। 2012-13 में जिला का आंकड़ा 35.1 रहा और सूची में दूसरे स्थान पर था, लेकिन 2016-17 में यह घटकर 12.7 रह गया।

मछली पालन : हिमाचल प्रदेश भारतवर्ष के उन राज्यों में से है जिन्हें प्रकृति ने पहाड़ों से निकलने वाली बर्फानी नदियों का जाल दिया है जो पंजाब, जम्मू कश्मीर, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश से होकर पहाड़ी, अर्ध मैदानी और मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करती हैं।

राज्य में बारहमासी नदियां व्यास, सतलुज, यमुना और रावी बहती हैं, जिनमें मत्स्यकि को शीतल जलीय प्रजातियां जैसे ट्राउट, सुनैहरी महाशीर और गुगली (साइजोथरैक्स) पाया जाता है। राज्य ने शीतल जलीय मत्सयकि संसाधनों के दोहन के लिए महत्वपूर्ण “इन्डो-नार्वेयन ट्राउट फार्मिग” परियोजना का सफल कार्यान्वयन करके वाणिज्यिक ट्राउट पालन को निजी क्षेत्र में लाने का गौरव अर्जित किया है। प्रदेश के दो बड़े जलाशय, गोबिन्दसागर और पौंग डैम में उत्पादित व्यवसायिक रूप से महत्वपूर्ण मत्स्य प्रजातियां स्थानीय लोगों के आर्थिक विकास का मुख्य स्रोत बन गई हैं।

प्रदेश में लगभग 4,900 मछुआरे प्रत्यक्ष रूप से जलाशयों में मछली पकड़ने पर निर्भर हैं। हिमाचल प्रदेश में मछलियों के विकास के लिए मुख्य साधन जलाशय, नदियां और तालाब हैं। ‘गोविन्दसागर’ और ‘पौंग डैम’ इनमें से 40,000 हैक्टेयर जलाशय में से दो हैं। लगभग 3,000 किलोमीटर लंबी नदियां और लगभग 150 हैक्टेयर के तालाब हैं। इसके अलावा, क्षेत्र में कई बारामासी पानी वाली खड्डें और नाले हैं, जहां मछलियां पलती हैं। सरकार ने बीज की मछली बनाने के लिए दयोली (बिलासपुर), जगातखाना (नालागढ़), आलसू (मण्डी) तथा मिलवां (कांगड़ा) में मत्स्य प्रजनन केंद्र खोले हैं। दयोली एशिया में सबसे बड़ा मत्स्य पालनगृह है। 1961 में इसका उद्घाटन हुआ था।  यह बिलासपुर मंडी रोड़ पर घाघस के समीप स्थित है।

हिमाचल प्रदेश में ट्राउट नाम की मछली है, जो केवल ठण्डे जलवायु में जीवित रहती है और देश के अन्य हिस्सों में भी पाई जाती है। इस मछली के पालन और विकास के लिए कटरांई (कुल्लू), बरोट (मण्डी) और चड़गांव (रोहडू) में विशेष केंद्र खोले गए हैं। प्रदेश में लगभग 5900 मीट्रिक टन मछली प्रति वर्ष उत्पादित होती है। महाशीर, लैबियो, मिर्र-कार्प और ट्राउट प्रदेश में पाए जाने वाली मछली की कुछ प्रसिद्ध किस्में हैं। यह क्षेत्र मछली पकड़ने वालों का स्वर्ग है।

प्रदेश में जलाशयों के मछली व्यवसाय पर लगभग 6,098 मछुआरे प्रत्यक्ष रूप से निर्भर हैं। दिसंबर 2017 तक प्रदेश के विभिन्न जलाशयों से 6,980.96 मीट्रिक टन मछली का उत्पादन हुआ, जिसका मूल्य ₹8,904.56 लाख था। हिमाचल प्रदेश के जलाशयों में गोबिन्द सागर में प्रति हैक्टेयर मत्स्य उत्पादन सर्वाधिक है, जबकि गैंग डैम की मछलियों का सर्वाधिक विक्रय मूल्य है। दिसंबर 2017 तक, गोबिन्द सागर में प्रति हैक्टेयर जलाशय 7.65 टन ट्राउट मच्छली उत्पादन से राज्य में फार्मोंसे ₹9782 लाख का राजस्व प्राप्त हुआ है। ग्रामीण व्यवसायिक जलाशयों और तालाबों, सरकारी और निजी क्षेत्रों में मत्स्य विभाग द्वारा जलाशयों की मांग को पूरा करने के लिए उन्होंने कार्प और ट्राउट बीज फार्मों का निर्माण किया है। भारत सरकार ने जून 2017 में फार्म बीज को 70 मिलीमीटर से ऊपर का ही मत्स्य बीज जलाशयों में संग्रहित कर बेचा था, और वर्ष 2016-17 में फार्म बीज का उत्पादन रु. 287.80 लाख था। 2017-18 (दिसंबर, 2017) तक, विभाग ने 70 मिलीमीटर से अधिक आकार की कार्य मछली बीज को 19.94 लाख रुपये का भुगतान किया। पहाड़ी क्षेत्र होने के बावजूद भी क्षेत्र में मत्स्य पालन बहुत महत्वपूर्ण है। 2017 में राज्य को “राष्ट्रीय कृषि विकास योजना” के तहत 300.30 लाख रुपये की योजना दी गई है।

मधुमक्खी पालन: शहद बनाने के लिए सरकार भी मधुमक्खी पालन पर जोर दे रही है। इसका प्रसारण उद्यान विभाग कर रहा है। शहद बनाने के लिए सरकार भी मधुमक्खी पालन पर जोर दे रही है। इसका प्रसार उद्यान विभाग करता है। 2016 तक हिमाचल प्रदेश में 1629.8 मीट्रिक टन शहद उत्पादित हुआ था। हिमाचल प्रदेश में बागवानी विभाग और राष्ट्रीय मधुमक्खी पालन बोर्ड की कोशिशों से मीठा कारोबार सुधर रहा है।सरकारी क्षेत्र में शहद का कारोबार कम माना जाता है, लेकिन निजी क्षेत्र में इसका रुझान बढ़ा है, जो बेरोजगारों को काम मिलता है। शहद के निजी उत्पादन में प्रदेश में पिछले दो वर्षों (2014–16) में काफी बढ़ोतरी हुई है। 2013-14 के दौरान हिमाचल प्रदेश में 1515.29 मीट्रिक टन शहद का उत्पादन हुआ था, जिसमें अकेले निजी क्षेत्र ने 1510 मीट्रिक टन उत्पादन किया था। प्राइवेट यूनिटो ने 2014 से 2015 तक 1625 मीट्रिक टन शहद भी बनाया था। हिमाचल प्रदेश में निजी क्षेत्र में उत्पादन में बढ़ोतरी के साथ-साथ गुणवत्ता में भी काफी सुधार हुआ है, जो राज्य की अर्थव्यवस्था को पंख लगा रहा है। शिमला 2014 से 2015 तक प्रदेश में सबसे अधिक शहद का उत्पादन करता था। शिमला ने 559 168 मीट्रिक टन शहद बनाया, कांगड़ा दूसरे स्थान पर रहा। कांगड़ा में 418.6 मीट्रिक टन शहर बनाया गया था। कांगड़ा में 2013-14 के दौरान सबसे अधिक 574.814 मीट्रिक टन उत्पादन हुआ था। हिमाचल अन्य राज्यों की तुलना में कम शहद उत्पादित करता है, लेकिन हिमाचली शहद की गुणवत्ता की काफी मांग है।

 

खाद्यान्न उत्पादन का विकास

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