क्षेत्र विस्तार से उत्पादन बढ़ाने में भी सीमा होती है। जब बात कृषि योग्य भूमि की आती है, हिमाचल प्रदेश भी अब ऐसी स्थिति में पहुंच गया है जहां भूमि को इस उद्देश्य के लिए बढ़ाया नहीं जा सकता। यही कारण है कि उत्पादकता स्तर को बढ़ाने के साथ-साथ विविधतापूर्ण पूर्ण उच्च मूल्य वाली फसलों को अपनाने की कोशिश करनी चाहिए। नकदी फसलों की तरफ बदले हुए रुझान की वजह से खाद्यान्न फसलों के अंतर्गत क्षेत्र धीरे-धीरे कम हो रहा है। जैसे 1997-98 में यह 853.88 हजार हैक्टेयर था, लेकिन 2008-09 में यह 792.02 हजार हैक्टेयर रह गया। प्रदेश में उत्पादन में वृद्धि, उत्पादकता दर में वृद्धि का संकेत है। मुख्य खाद्यान फसलों का क्षेत्र 2014-15 में 755.21 हेक्टेयर था, जबकि 2015-16 में यह 764.85 हेक्टेयर था। इसी तरह, 2014-15 में खाद्यान फसलों का उत्पादन 1546.81 मीट्रिक टन था, जो 2015-16 में 1634.05 मीट्रिक टन हो गया।
कृषि-खंड : प्रदेश चार कृषि क्षेत्रों में विभाजित है।
- शिवालिक पहाड़ी क्षेत्र: यह क्षेत्र समुद्रतल से 700 मीटर ऊंचाई पर स्थित है और राज्य के कुल क्षेत्र का 35% और कृषि भूमि का 33% हिस्सा शामिल है। लगभग 150 सैंटीमीटर की वर्षा इसमें होती है। गंदम, जौ, चना, मसूर, सरसों, अलसी, बरसीम, आलू, मक्की, धान, गन्ना, काले चने, सोयाबीन और मौसमी सब्जियां इस क्षेत्र की प्रमुख फसलें हैं।
- मध्य पहाड़ी क्षेत्र: यह क्षेत्र समुद्रतल से 700 से 1600 मीटर ऊंचा है। यह लगभग 180 सेंटीमीटर की औसत वर्षा करता है। इसमें राज्य के भौगोलिक क्षेत्रफल का ३२% और कृषि क्षेत्र का ३३% हिस्सा शामिल है। इसमें अपेक्षाकृत कम भूमि कटाव होता है। नदियों के नालों के किनारे कई छोटी-छोटी उपजाऊ घाटियां हैं। अधिकांश चारागाह क्षेत्रों में कृषि नहीं होती है। इस खंड में लाल मिर्च, अदरक, टमाटर, मटर और अन्य गैर-मौसमी सब्जियां भी उगाई जाती हैं।
- ऊंची पहाड़ी शाखा: यह क्षेत्र समुद्रतल से 1600 मीटर से ऊपर है, जिसमें कोष्णी जलवायु है और पर्वतीय चारागाह है। इसमें प्रदेश के भौगोलिक क्षेत्र का 25% और कृषि क्षेत्र का 11% शामिल हैं। 100-150 सैंटीमीटर की औसत वर्षा होती है। इस भाग में गंदम, जौ, छोटे बाजरे, चने, बीन आदि शामिल हैं। इस खंड में गैर-मौसमी सब्जियां, जैसे आलू, फूलगोभी, बन्दगोभी, गाजर, मटर और बीनें उत्तम किस्म के हैं। इस क्षेत्र में व्यापक चारागाह हैं।
- ठंडा और शुष्क भाग: यह भाग समुद्रतल से 2700 मीटर की ऊंचाई पर स्थित लहौल-स्थिति, किन्नौर और चम्बा के पांगी क्षेत्रों का है। इस भाग में कुल भौगोलिक क्षेत्र का आठ प्रतिशत और कुल कृषि क्षेत्र का तीन प्रतिशत हिस्सा शामिल है। इसमें सिर्फ ग्रीष्म और पतझड़ ऋतुओं में फसल होती है। यह उत्तम आलू, गन्दम, जौ और कुछ सब्जियां उगाता है।
फ़सलें: आषाढ़ी (खरीफ) और रबी प्रदेश में प्राय: बीजी फसलें हैं। आषाढ़ी फसल अक्सर मई से जून तक बीजी जाती है और सितंबर से अक्टूबर तक काटी जाती है। इस फसल में मुख्य अनाज मक्की और धान है। रबी फसल अक्टूबर से नवंबर तक बीजी जाती है और अप्रैल से मई तक काटी जाती है। गंदम और चने इस फसल में बीजे जाते हैं। प्रदेश में बीजी जाने वाली कुछ प्रमुख फसलें हैं:-
- गन्दम: प्रदेश में बीजे जाने वाले खाद्य पदार्थों में गन्दम सबसे पहले है। रवी की यह फसल अक्टूबर से नवंबर तक बीजी होती है, और अप्रैल से मई तक काटी जाती है। यह लगभग पूरे हिमाचल प्रदेश में बीजी जाती है। “कल्याण-सोना”, “सोना-लिका” और “आर आर 21” गन्दम की सबसे उन्नत प्रजातियां हैं। औसतन 2006 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर उत्पादन है। गंदम लगभग राज्य के कुल फसलाधीन क्षेत्र के 38 प्रतिशत में उगाई जाती है।
- मक्का: यह फसल वर्षा पर निर्भर करने वाले क्षेत्रों में बोई जाती है, जो कुल फसलाधीन क्षेत्र के ३० प्रतिशत भाग में होती है। खरीफ की यह फसल मई से जून तक बीजी होती है और सितंबर से अक्टूबर तक काटी जाती है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब और राजस्थान देश में मक्की की पैदावार के लिहाज से पांचवें स्थान पर हैं। राष्ट्रीय औसत पैदावार 2052 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर से अधिक है। “गंगर-3”, “विजय”, “अम्बर” और हिम-123 जैसे उन्नत मक्की प्रजातियां हैं। मंडी, बिलासपुर, हमीरपुर, ऊना, चम्बा, कांगड़ा, सोलन और सिरमौर मक्की उत्पादन के प्रमुख जिले हैं।
- धान: यह राज्य की खरीफ की दूसरी सबसे बड़ी फसल है। लहौल-स्पिति और किन्नौर को छोड़कर प्रदेश के सभी क्षेत्रों में धान बीजा जाता है; निम्न पहाड़ियों में औसत उपज 1254 किलो प्रति हैक्टेयर है, जो देश की औसत उपज से अधिक है।
- जौ (बीज): यह राज्य में रबी की दूसरी सबसे बड़ी फसल है। किन्नौर और लहौल-स्पिति में इसे अधिक बोया जाता है। इस फसल में फसलाधीन रकबे का सिर्फ 3.7 प्रतिशत हिस्सा शामिल है। इस फसल का अनुपात लहौल-स्पिति में 32.1 प्रतिशत, किन्नौर में 16.8 प्रतिशत, चम्बा में 10.6 प्रतिशत, कुल्लू और शिमला में 8 प्रतिशत है। औसत हैक्टेयर उपज 1470 किग्रा है।
अन्य खाद्यान्न: ज्वार, बाजरा, रागी, शौक, ओगला, कंगणी, चुलाई, बाधु और अन्य खाद्यान्न प्रदेश के अंदरूनी क्षेत्रों में बीजे जाते हैं। ये बीज फसलाधीन क्षेत्र के 3.7 प्रतिशत में पाए जाते हैं।
दालें: प्रदेश के कुल फसलाधीन क्षेत्र का 5.7 प्रतिशत बीजी दालें हैं। लहौल-स्पिति को छोड़कर राज्य के हर जिले में दालें बीजी जाती हैं। माश (उड़द), मूंग, कोल्थ, रौंगी, चने, काले चने, मटर और मसूर सबसे आम दालें हैं। अरहर भी नालागढ़ जैसे स्थानों पर उगाया जाता है। प्रदेश में प्रति वर्ष 16 हजार टन दालें उत्पादित होती हैं।
तिलहन : निम्नलिखित क्षेत्रों में तेल की फसलें बीजी जाती हैं: इनमें सरसों, तोरिया, अलसी और तारा मीरा सबसे महत्वपूर्ण हैं। 16000 टन तिलहनों की औसत पैदावार राज्य में है। नकदी फसलें आम फसलों से अलग हैं, क्योंकि वे बीजी जाती हैं। जो निम्नलिखित हैं:-
आलू : प्रदेश के कृषकों की आर्थिक वृद्धि में आलू का विशेष महत्व है। प्रदेश में पहली बार द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान चौथे दशक में आलू की खेती की गई थी। जब बर्मा से आलू नहीं आते थे। यहां की जलवायु में यह फसल बहुत अच्छी तरह से काम आई। शिमला और लहौल-स्पिति जिलों में इस समय बेहतरीन बीज का आलू पैदा किया जाता है, जिसकी देश के ग्रामीण क्षेत्रों में अच्छी कीमत है। आलू मुख्यतः: खरीफ फसल में ही बीजा जाता है, लेकिन सुलभ सिंचाई व्यवस्था में यह रबी फसल में भी बीजा जाता है।
प्रदेश में लगभग 16000 हैक्टेयर जमीन पर आलू बीजा जाता है, जिसकी वार्षिक पैदावार आज लगभग 1,20,000 टन है, जो 1966 ई. में लगभग 50,000 टन थी। शिमला, लहौल-स्पिति (लहौल घाटी), कुल्लू, चम्बा, सिरमौर और मण्डी आलू उत्पादन के प्रमुख जिले हैं। प्रदेश का आलू महाराष्ट्र, गुजरात, मैसूर, मध्यप्रदेश और उड़ीसा में भेजा जाता है।
अदरक (Ginger): सिरमौर, सोलन, बिलासपुर और शिमला जिलों में मुख्य रूप से अदरक बीजा जाता है। हिमाचल प्रदेश देश में अदरक की पैदावार में केरल के बाद दूसरा स्थान है। 1966 की पैदावार से आज लगभग 29,000 टन अधिक अदरक प्रदेश में उत्पादित होता है। यहाँ अब नर्म रेशे का अदरक बनाने का प्रयास किया जा रहा है। वैसे, अदरक खाने के अलावा कई औषधीय उपचारों में भी उपयोग किया जाता है।
गन्ना (Sugarcane): ऊना, सोलन, कांगड़ा और सिरमौर जिले गन्ना की खेती करते हैं। कृषक अन्य जिलों में भी गन्ना बीजते हैं, लेकिन प्रदेश में अभी तक गन्ने का व्यवसायीकरण नहीं हुआ है, सिर्फ थोड़ी मात्रा में गुड़ या शक्कर बनाने के लिए।
चुकन्दर: चुकन्दर का बीज केवल किन्नौर में उगाया जाता है। यह स्थानीय जनता को पैसे कमाने का एक अच्छा उपाय है।
खुम्ब या मशरूम: अभी तक सोलन शिमला में ही मशरूम का उत्पादन होता है। जो इस समय लगभग 360 टन प्रति वर्ष है।
काला जीरा: काला जीरा एक नकदी फसल है जो केवल किन्नौर और लहील क्षेत्रों में उत्पादित होती है।कुठ (Kuth): लहौल घाटी में विशेषतया और कुल्लू तथा किन्नौर में थोड़ी मात्रा में पैदा की जाने वाली यह बूटी इस क्षेत्र के लोगों के आर्थिक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसकी जड़े ही सही है। 200 टन से अधिक इस पौधे को राज्य व्यापार निगम फ्रांस, अमरीका, इंग्लैंड, कनाडा, स्विटजरलैंड, वियतनाम, हांगकांग, जापान और मलेशिया में 6000 से 7000 रुपये प्रति टन में निर्यात करता है। हिमाचल प्रदेश में लगभग सौ हेक्टेयर जमीन पर बोया जाता है। यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि इसे कास्मैक, दवा कीटनाशक या नशीली दवा के रूप में अधिक प्रयोग किया जाता है। पूरी तरह से जानकारी मिलने पर हिमाचल प्रदेश में ही ये उत्पाद बनाए जा सकते हैं और यह बूटी राज्य की आय का एक बड़ा स्रोत बन सकती है। इसका बीज लगभग 1925 ई. में लहौल में लाया गया था क्योंकि यह काश्मीर में अकेले जंगलों में पैदा होता है।
सब्जियां: प्रदेश में सब्जियों के बीज और सब्जियां पैदा करने की भारी आवश्यकता है, जिससे कृषकों की आय बढ़ सकती है। प्रदेश के जलवायु के कारण यहां गैर मौसमी सब्जियां उगाने की काफी संभावना है, अर्थात् जब सब्जियां मैदानों में नहीं उगाई जा सकती हैं। हाल ही में कृषकों ने कद्दू, मिर्च, खीरा, टमाटर और मटर की कुछ नई किस्में बनाई हैं। प्रदेश में 1994-95 में लगभग 4 लाख टन ताजी सब्जियां पैदा की गईं, जो 2008-09 में 7 लाख टन हो गईं। इसके अलावा, कांगड़ा के पालमपुर में चाय के बगीचे हैं। चाय भी नकदी फसल है।