हिमाचल के आर्थिक विकास और भविष्य की संभावना

हम हिमाचल के आर्थिक विकास और भविष्य की संभावनाओं को इन क्षेत्रों (कृषि कार्यक्रम, जल-विद्युत, उद्योग, खनिज, परिवहन और संचार, सहकारिता और ग्राम-विकास, सामाजिक तथा सामुदायिक सेवाएं, विविध सेवाएं) में विकास के लिए सरकार योजना के व्यय का चयन करते हैं।

1. कृषि कार्यक्रम :

हिमाचल प्रदेश मुख्यतः गाँवों और खेती पर आधारित है। जिसकी लगभग 92 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में रहती है और 76 प्रतिशत लोगों का काम कृषि है। यही कारण है कि कृषि और उससे जुड़े अन्य उद्योगों, जैसे बागवानी, प्रदेश के विकास में विशेष महत्व रखते हैं।

2. भूमि प्रबंध :

कृषि सीधे भूमि से जुड़ा हुआ है, इसलिए भूमि प्रबंध और उसमें किए गए सुधारों की जानकारी होनी चाहिए। प्रदेश के अस्तित्व में आने से पहले, ये क्षेत्र छोटी-छोटी रियासतों में विभाजित थे और कानून केवल राजाओं और राणाओं की इच्छा थी। अंग्रेजों की सहायता से कुछ रियासतों ने भू-प्रबंध करवाकर भूमि-संबंधी अभिलेख बनाया था, लेकिन यह सिर्फ कुछ रियासतों में था और वह भी अधूरा था क्योंकि कृषि से बाहर के क्षेत्रों को मापा नहीं गया था।

राजस्व भी एकपक्षीय था, हालांकि कहीं-कहीं किया गया था जिसमें शासक वर्ग के हितों को सर्वोपरि माना गया था। है। लिखित भू-राजस्व कर के अलावा, शासक गण लोगों से नकदी और वस्तुओं के रूप में कई कर वसूलते थे, जिनके विरुद्ध जनता ने कई बार आवाज उठाकर विद्रोह किए, जिनके बारे में ऊपर बताया गया है। भूमि का आला मालिक शासक या राजा था, जबकि दूसरे अदना मालिक थे। इसके अलावा, शासक को किसी को जागीर देने या माफी देने का अधिकार था। राजस्व से सीधे जुड़े व्यक्ति या संस्था को मुआफी दी जाती थी। जबकि जागीर में बहुत से लोगों को एकत्र करके जागीरदार को दिया जाता था, जो अक्सर शासक या शासकों के चहेते थे।

प्रदेश के अस्तित्व में आने पर 1948 में यहां पंजाब भू-राजस्व अधिनियम 1887 लागू हुआ। 1953 में हिमाचल प्रदेश विधान सभा ने हिमाचल भू-राजस्व अधिनियम 1963 चारित किया, जो 1954 से प्रदेश में लागू हो गया था। इसी अधिनियम के तहत इस समय जमीन का प्रबंध किया जाता है। सरकार अधिनियम जारी करके किसी संपत्ति या संपत्ति समूह के राजस्व निर्धारण पाउस की पुनरावृत्ति कर सकती है। एक बार किया गया निर्णय चालीस वर्ष तक चल सकता है। राजस्व निर्धारण करने से पहले हर संपदा, या गांव, का अधिकार अभिलेख बनाया जाता है। जिसमें हर व्यक्ति के अधिकार बताए गए हैं।

उपरोक्त अधिनियम में राजस्व-प्रबंध चलाने के लिए पांच प्रकार के राजस्व अधिकारियों का प्रावधान किया गया है: सहायक समाहर्ता प्रथम और द्वितीय श्रेणी (तहसीलदार और नायब तहसीलदार), समाहर्ता (उपमण्डाधिकारी और जिलाधीश), आयुक्त और वित्तायुक्त और निम्न स्तर पर ग्राम-अधिकारियों (पटवारी, कानूनगो और राजस्व इकट्ठा करने के लिए नम्बरदार)।

पटवारी प्रत्येक भू-स्वामी से खरीफ और रबी फसल से पहले भुगतान किए जाने वाले भू-राजस्व और अन्य करों और उपकरों की सूची नम्बरदार को देता है, जो तिथि से पहले भुगतान कर तहसील में जमा करता है। अधिनियम भू-राजस्व की वसूली के लिए प्रावधान करता है। अधिकारी—अभिलेख समाहर्ता हर पांच साल के बाद पुरनावृत्त करता है और अंतिम तिथि तक पूरा करता है। यानि भूमि से संबंधित बरास्त, क्रय-विक्रय या अन्य परिवर्तनों का रजिस्टर राजस्व अधिकारी द्वारा निर्णय किये जाने के बाद पांच साल बाद जमाबंदी में अमल किया जाता है, जो अधिकार अभिलेख का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

3. भूमि सुधार :

जहां तक जमीन जोतने वालों के अधिकार की बात है, काश्तकारों की स्थिति भी बदतर थी क्योंकि उनके पास कोई अधिकार नहीं था और भू-स्वामी चाहे तो उनसे जमीन छीन सकता था। काश्तकार की खेती में खड़ी फसल पर अन्दाजे से अधिक अनाज मांग लिया जाता था, जिससे काश्तकार और उसका परिवार पूरे वर्ष भूखे रहते थे। प्रदेश बनने पर यहां 1948 में पंजाब मुजारा अधिनियम 1888 लागू हुआ। 1950 में हिमाचल प्रदेश में भी पंजाब भूमि-जोत प्रतिभूति अधिनियम लागू किया गया था।

1952 में हिमाचल प्रदेश सरकार ने पंजाब मुजारियत अधिनियम, 1952 (हिमाचल प्रदेश संशोधन) पारित किया, जिसके अनुसार मुजारे से मालिक द्वारा वसूल किए जाने वाले लगान की अधिकतम सीमा पैदावार का चौथा भाग होगी। साथ ही सरकार ने हिमाचल प्रदेश मुजारा (अधिकार और वापिसी) अधिनियम, 1952 पारित किया, जिसके अनुसार भू-स्वामी को 15 अगस्त, 1950 को बेची गई जमीन के अगक्रयण (Premption) के अधिकार दिए गए थे, और मुजारों ने इसके बाद इस जमीन को बेदखल कर दिया था। 1953 में हिमाचल प्रदेश सरकार ने ‘बड़ी जमींदारी उन्मूलन व भूमि-सुधार अधिनियम’ पारित किया, जो राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने पर 25 जनवरी 1955 से लागू हो गया।

यह भारत में काश्तकारों को भूमि देने संबंधी पहला कानून था। 5 एकड़ से कम क्षेत्रफल वाले मालिक मुजारे से एक चौथाई भूमि वापस ले सकते थे, लेकिन लोगों ने इस अधिकार का उस समय कम प्रयोग किया। 125 रुपये प्रति वर्ष से अधिक भू-राजस्व देने वाले मालिकों को सरकार द्वारा नाममात्र क्षतिपूर्ति दी गई। भूमि सुधार अधिकारी को प्रार्थना पत्र देकर, मौरूसी मुजारे भू-राजस्व की चौबीस गुणा और गैर-मौरूसी मुजारे भू-राजस्व की 48 गुणा राशि मालिक को क्षतिपूर्ति में दे सकते थे।

1 नवंबर 1966 को विशाल हिमाचल प्रदेश बनाया गया था। पंजाब से जुड़े क्षेत्रों में कानून कुछ समय तक लागू रहे, लेकिन सरकार ने 1972 में और उसके बाद कई नए सुधार लाने वाले विधेयक पारित किए। इनमें से पहला था 1972 का हिमाचल प्रदेश मुजारियत व भूमि सुधार अधिनियम। इसमें छोटे भू-स्वामी (डेढ़ एकड़ सीचिंत या तीन एकड़ अर्सीचित भूमि से कम) अपनी मुजारों से भूमि सुधार अधिकारी को प्रार्थना पत्र देकर वापस ले सकते हैं। शेष सभी मालिकों के मुजारों को सिर्फ नाममात्र की क्षतिपूर्ति दी गई और जमीन का मालिक बना दिया गया।

सेना में सेवारत लोगों, विधवाओं, परित्यक्ता स्त्रियों, शारीरिक या मानसिक रूप से अपंग लोगों, अवयस्कों और अन्य कमजोर वर्गों को भूमि का स्वामित्व नहीं लेना था। इसके अलावा, सरकार की अनुमति के बिना, गैर-कृषक व्यक्तियों द्वारा जमीन खरीदने पर रोक लगा दी गई। हिमाचल प्रदेश भूमि जोत सीमा अधिनियम, 1972, दूसरा महत्वपूर्ण कानून था. इसके अनुसार, 21 जनवरी 1971 के बाद कोई भू-स्वामी 10 एकड़ से अधिक दो फसलें देने वाली भूमि, 15 एकड़ से अधिक सींचित भूमि और 30 एकड़ से अधिक अन्य भूमि नहीं रख सकता।

यह सीमा 70 एकड़ के लिए निर्धारित की गई थी कुछ पिछड़े इलाकों में, जैसे बड़ा भंगाल, भरमौर, पांगी, किन्नौर, रामपुर का पंद्रह बीस इलाका और रोहडू का डोडराक्वार इलाका. सरकार ने एक योजना बनाकर भूमिहीन लोगों या उन लोगों को जिनके पास एक एकड़ से कम भूमि थी, उसे एक एकड़ भूमि देने की योजना बनाई, जो धीरे-धी हिमाचल प्रदेश गांव शामलात भूमि (स्वामित्व अधिकार विहित) अधिनियम, 1974 भी एक महत्वपूर्ण अधिनियम था।

इस अधिनियम के अनुसार शामलात भूमियों में से, जो पहले पंचायतों के अधीन थी, पचास प्रतिशत भूमि गांवों के सांझे उपयोग के लिए सुरक्षित रखी गई. बाकी भूमि सरकार के स्वामित्व में थी, जिसे योजना के अनुसार भूमिहीनों में बाँटने और उन लोगों की जोतें एक एकड़ से कम होने तक पूरी करने के लिए सरकार को दी गई।

 

जल विद्युत परियोजनाएं-I

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