भारतीय चित्रकला के इतिहास में हिमाचल प्रदेश की कला बहुत महत्वपूर्ण है। हिमाचल प्रदेश की चित्रकला का भारत वर्ष में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में विशिष्ट स्थान है। वह अपनी विशेषताओं के लिए प्रसिद्ध है। हिमाचल प्रदेश की चित्रकला लघुचित्रों और भित्तिचित्रों में दिखाई देती है। ये लघुचित्र कागजों पर लिखे गए और भित्तिचित्र मंदिरों, राजमहलों, बावड़ियों और निजी घरों की दीवारों और छतों पर अंकित किए गए। पहाड़ी चित्रकला, कांगड़ा की चित्रकला आदि हिमाचल प्रदेश की कला के नाम हैं।
मानव कन्दराओं में लाखों वर्ष पूर्व चित्रकला का जन्म हुआ। मानव निर्मित गुफाचित्र इसका सबूत हैं। मानव के अंदरूनी भावों को चित्रकला द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। कलाकार अपने समय में देखा, सुना और भोगा हुआ सब कुछ चित्रों द्वारा व्यक्त करना चाहता है। यही कारण है कि चित्रकला हमें अतीत, प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के बारे में बहुत कुछ बताती है। हिमाचल प्रदेश की चित्रकला भी हमारी सभ्यता व संस्कृति की महत्वपूर्ण धरोहर है, जो विश्व कला जगत में अपना गौरवपूर्ण स्थान बना चुकी है।
19वीं और 20वीं शताब्दी में हिमाचल प्रदेश की कुछ सुंदर चित्रकला कृतियाँ प्रकट हुईं, जो भारतीय चित्रकला के इतिहास में एक और रोचक दौर शुरू कर दीं। १९वीं शताब्दी में पहली बार मैटकाफ ने कांगड़ा में इस शैली के कुछ चित्रों को पाया। 20वीं शताब्दी में डा. आनंद कुमार स्वामी भी इस ओर आकर्षित हुए, 1908 से 1910 के बीच उन्होंने इस विषय पर बहुत कुछ लिखा और भाषण दिया। 1912 ई. में डा. स्वामी ने राजपूत कला को मुगल कला से अलग बताया और उसे पहाड़ी कला और राजस्थानी कला में विभाजित किया। उनका कहना था कि राजस्थानी कला पंजाब की पहाड़ी रियास (अब हिमाचल प्रदेश) में थी, जबकि पहाड़ी कला राजस्थान के मैदानी क्षेत्र में थी। 1916 में डा. आनन्द कुमार स्वामी ने “राजपूत पेंटिंग” लिखी। जिसमें उन्होंने पहाड़ी कलाकृतियों की सांस्कृतिक भूमिका पर प्रकाश डाला, हिमाचल प्रदेश की कला को सम्मान मिला और विश्व में इसकी चित्रकला को गौरवपूर्ण स्थान मिला। O.C. गांगुली की पुस्तक “मास्टर पिसिज ऑफ राजपूत पेंटिंग” 1926 में प्रकाशित हुई, लेकिन इसमें कलाकृतियों के चार जन्म स्थानों और तिथियों की गलत जानकारी है। N.C. मेहता की पुस्तक “स्टडीज इन इण्डियन पेंटिंग” 1926 में प्रकाशित हुई थी, लेकिन इसमें कलाकृतियों का नाम नहीं बताया गया था। 1930 ई. में गुलेर, मण्डी कुल्लू, अर्की, चम्बा तथा लम्बागांव सहित कई रियासतों का दौरा करने के बाद जे.सी. फ्रेंच ने हिमालयन आर्ट नामक एक पुस्तक लिखी, जो हिमाचल प्रदेश की कला का अध्ययन करने वाले विद्वानों को बहुत सहायता मिली।
डब्ल्यू. जी. आर्चर की दो पुस्तकें, “भारतीय चित्रकला इन द पंजाब हिल्ज” और “कांगड़ा चित्रकला“, 1952 में प्रकाशित हुईं। पहली पुस्तक में उन्होंने हिमालय क्षेत्र में प्रचलित विभिन्न शैलियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। Dr. MS Randhawa ने आर्चर के अध्ययन से प्रेरित होकर कांगड़ा घाटी गए और इस विषय पर कई निबंध और पुस्तकें लिखीं। “बसोहली पेंटिंग”, “कांगड़ा वैली पेंटिंग” और “कृष्णा लिजेण्ड इन पहाड़ी पेंटिंग” उनके प्रमुख लेख हैं।
कार्ल खण्डेलवाल की बृहत् “पहाड़ी मिनिएचर पेंटिंग” में बहुत खोजपूर्ण सामग्री है। डॉ. मुलकराज आनन्द, डा. बी. एन. गोस्वामी और अन्य वैज्ञानिकों ने भी हिमाचल प्रदेश की पहाड़ी कला का अध्ययन किया। योग्य विद्वानों की लगातार कोशिशों से ही इस कला शैली को लोकप्रियता मिली। इन विद्वानों ने इस कला के असली सौन्दर्य को नजदीक से देखा, परखा और इसके विशिष्ट रूप को पूरे विश्व को दिखाया।विद्वानों के विचारों में भी विवाद है कि हिमाचल प्रदेश में इस चित्रकला का जन्म कब हुआ और कहां हुआ। कुछ विद्वानों का कहना है कि जम्मू के पहाड़ी क्षेत्र बसोहली में इस कला का जन्म हुआ था। यह कहते हैं कि बसोहली शैली का जन्म मुगल शासन से निष्कासि कलाकारों के एक दल ने किया था, जो वहां की लोक कला में बदलाव करके वहाँ पहुंचे। इसके बाद यह अन्य रियासतों में फैल गया। गुलेर अन्य विद्वानों के अनुसार पहाड़ी कला का जन्मस्थान था। फिर गुलेर शैली ने 1780 ई. में पूरी तरह से विकसित होकर कांगड़ा में प्रवेश किया, जहां वह कांगड़ा शैली के नाम से प्रसिद्ध हुई।
गुलेर कांगड़ा शैली का उद्गम स्थान था। इस विचार की पुष्टि करने के लिए निम्नलिखित प्रमाण हैं: पहली बात यह है कि गुलेर के राजाओं ने मुगल सम्राटों जैसे शाहजहां, जहांगीर और औरंगजेब से अच्छे संबंध थे, इसलिए शायद कुछ कलाकार दिल्ली गए हों या दिल्ली से मुगल कलाकार आए हों, जो दिल्ली की लोक कला में कुछ नवीनता लाया हो। औरंगजेब ने कलाकारों को अपने राज्य से भगाया या किसी तरह उनका शोषण किया, इसलिए शायद वे गुलेर में आकर शरण ली हों। गुलेर उन्हें दूसरे पहाड़ी राज्यों से सबसे नजदीक था, इसलिए जब वे आश्रय की खोज करने लगे, तो वे गुलेर भी पहुंचे होंगे। ,
यह सोचना गलत हो सकता है कि गुलेर (पहाड़ी) हिमाचल प्रदेश की चित्रकला का मूल है, और इसी शैली बाद में अन्य पहाड़ी रियासतों में फैल गई। लेकिन ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है; इसका मूल हिमाचल प्रदेश में लोक कला था। इससे पता चलता है कि हिमाचल प्रदेश, जो उस समय कई रियासतों में विभाजित था, प्राचीन काल से ही लोक कला किसी न किसी रूप में रही है। राजाओं की धार्मिक भावना या उनके कला प्रेम के कारण, लोक कला के इस प्रचलित रूप में सुधार हुआ और सभ्य सुसंस्कृत पहाड़ी कलम या कांगड़ा कलम के नाम से जाना जाता था।
जम्मू से टिहरी और पठानकोट से कुल्लू तक लगभग १५० मील लम्बे और १०० मील चौड़े क्षेत्र में पहाड़ी चित्रकला फैली थी। मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा ये पहाड़ी क्षेत्र आर्थिक रूप से पिछड़े हुए थे। उन्हें अपनी कठिन भौगोलिक स्थिति के कारण बाहरी शक्तियों और हमलावरों से लड़ना नहीं पड़ा, इसलिए यहां शांति बनी रही। ये राज्य शान्ति के पक्षधर थे, हालांकि वे सीमा विवाद जैसे मुद्दों के लिए अक्सर लड़ते रहते थे। मुगल दरबार से जहांगीर के शासनकाल में कलाकारों की अधिकता के कारण, शांत वातावरण की इच्छा रखने वाले कलाकार इन पहाड़ी रियासतों में आकर बस गए। हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में कोई भी रियासत इतनी लोकप्रिय नहीं थी कि सभी कलाकार उसी में रह सकते थे, इसलिए वे विभिन्न रियासतों में बसे। हिमाचल प्रदेश का प्राकृतिक सौन्दर्य कला निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान देता है। हिमाचल प्रदेश के चित्रों में यह मनोहर शांत वातावरण स्पष्ट है।
मुगल कलाकारों के आने से हिमाचल प्रदेश, जो उस समय कई रियासतों में विभाजित था, एक नया रूप लेने लगा। यहां की बहुत सी पहाड़ी रियासतों में कला केंद्र बनाए गए। उस समय सभी पहाड़ी रियासतों में 38 छोटे-बड़े कला केंद्र थे। वर्तमान हिमाचल प्रदेश में जो महत्वपूर्ण कला केंद्र थे, उनके नाम इस प्रकार से हैं। गुलेर, कांगड़ा, नूरपुर, टीरा सुजानपुर, नदौन, चम्बा, मण्डी, सुकेत, कुल्लू, बिलासपुर, अक (बाघल), नाहन, कोटला, जुनगा और जुब्बल हिमाचल प्रदेश के चित्रकला क्षेत्रों में गुलेर शैली जैसी शैलियों का उदय हुआ, जो “पहाड़ी चित्रकला” के अन्तर्गत आते हैं।
कलाकारों का एक स्थान से दूसरे स्थान में आना जाना लगा रहता था। कलाकारों को अक्सर एक राज्य से दूसरे राज्य में बुलाया जाता था, फिर उनका काम अपने राज्य में किया जाता था। इस तरह, एक शैली दूसरी शैली में विवाह के समय राजकुमारी के साथ दहेज में आती थी, तो कभी-कभी राजा ही दूसरे राज्य की शैली को प्रभावित करते थे, जिससे प्रत्येक कला केन्द्र पुष्पित हो गया और धीरे-धीरे अपने उत्कृष्ट रूप तक पहुंचा। पहाड़ी चित्रकला के इन कला केंद्रों की शैलियों में स्थानीय परिवेश और लोक शैली के कारण भिन्नता अवश्य होती है, लेकिन चित्रकला का मूल स्वरूप एक ही है।
कांगड़ा के राजा संसारचंद (1775–1823 ई.) एक बड़े कलाकार, कलाकार और कला प्रेमी थे, और उनके शासनकाल में हिमाचल प्रदेश में चित्रकला सबसे अच्छी थी। वास्तव में, इनके शासनकाल के अंतिम बीस वर्ष इस चित्रकला के महान युग का प्रतीक हैं। हिमाचल प्रदेश में इस काल से चित्रकला की सबसे सुन्दर कृतियों का निर्माण हुआ, जो कई नए आयाम स्थापित किये और सदा के लिए अमर हो गया। हिमाचल प्रदेश विश्व भर में अपनी कला और सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध है। यहां की कला और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में स्थानीय लोगों का जीवन दर्शन झलकता है।