राज्यपाल
राज्यपाल राज्य का सबसे बड़ा अधिकारी है. संविधान की धारा 153 के तहत भारत का राष्ट्रपति राज्यपालों को नियुक्त करता है. परन्तु संविधान के अनुसार राज्यपाल प्रांत की सरकार चलाने में स्वतंत्र नहीं है. उसे मंत्री परिषद और मुख्यमंत्री की सलाह पर काम करना होगा. नियमित रूप से, राज्यपाल मुख्यमंत्री और मंत्री परिषद् की सलाह पर काम करता है, लेकिन राज्य में आपातकालीन स्थिति घोषित होने पर या निर्वाचित सरकार के फेल होने पर राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में राज्य की बागडोर सम्भालता है. राज्यपाल सभी सरकारी आदेश और अध्यादेश जारी करता है वह विधानसभा का सत्र बुला सकता है और इसे भंग या स्थगित कर सकता है. राष्ट्रपति उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति में राज्यपाल से मंत्रणा करते हैं.
मुख्य मंत्री और मंत्री परिषद
विधानसभा चुनावों में बहुमत प्राप्त करने: वाली पार्टी अपना नेता चुनती है, जिसे राज्यपाल प्रदेश का मुख्यमंत्री नियुक्त करके मंत्री मण्डल बनाने के लिए आमन्त्रित करता है.
मुख्यमंत्री अपनी पार्टी के विधानसभा सदस्यों में से मंत्री, राज्य मंत्री या उप मंत्री चुनता है और राज्यपाल को उनकी नियुक्ति की सफारिश करता है. उनकी नियुक्ति राज्यपाल करता है. मुख्यमंत्री या अन्य पदों पर नियुक्त होने के लिए छः महीने के भीतर चुनाव लड़ना आवश्यक है, लेकिन विधानसभा का सदस्य नहीं होने पर भी ऐसा हो सकता है. संविधान की धारा 163 ने मंत्री परिषद को बनाया है. संविधान की धारा 167 में मुख्य मंत्री की कुछ जिम्मेदारियों का उल्लेख है. सरकार मंत्री परिषद से चलती है. विधानसभा उसे हर काम के लिए उत्तरदायी है.
मुख्य मंत्री के परामर्श के अनुसार, राज्यपाल मंत्री मण्डल के सदस्यों को सरकारी विभागों या नवस्थापित विभागों में विभाजित करता है. प्रत्येक मंत्री अपने विभाग को सफलतापूर्वक संचालित करने के लिए जिम्मेदार है. विधानसभा के प्रति प्रत्येक मंत्रीमण्डल सदस्य व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से उत्तरदायी है. यही संसदीय लोकतंत्र है. 1952 में डा. यशवंत सिंह परमार ने प्रदेश की पहली लोकतांत्रिक सरकार बनाई. 1972 के चुनावों में भारतीय कांग्रेस पार्टी ने फिर से सत्ता हासिल की और हिमाचल प्रदेश में 68 में से 54 सीटें जीतीं. डा. परमार ने फिर से हिमाचल प्रदेश का मुख्यमंत्री पद संभाला. 1976 में डा. परमार ने व्यक्तिगत कारणों से मुख्यमंत्री पद से त्याग पत्र दे दिया और ठाकुर रामलाल प्रदेश मुख्यमंत्री बने.
जब 1977 में लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव हुए, तो कांग्रेस पार्टी को भारी हार मिली, जबकि जनता पार्टी राज्य और केंद्र में सत्तासीन हुई. श्री शांताकुमार प्रदेश के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री बन गए, लेकिन कुछ समय बाद जनता पार्टी में आंतरिक विवाद हुआ, जिसके कारण जनता पार्टी सरकार गिर गई. 14 फरवरी 1980 को, 30 महीने के बाद कांग्रेस पार्टी फिर से सत्ता में आई, अब इसका नाम कांग्रेस (इंदिरा) हो गया. 1980 में जनता सरकार गिरने पर ठाकुर रामलाल फिर से मुख्य मंत्री बन गए. श्री रामलाल ठाकुर, जो नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री थे, को भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के कारण त्यागपत्र देना पड़ा और उनकी जगह श्री वीरभद्र सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया. तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी ने पूर्व मुख्यमंत्री श्री रामलाल ठाकुर को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बनाया. श्री वीरभद्र सिंह को नागरिक उडडयन राज्यमंत्री पद पर नियुक्त किया गया था. श्री रामलाल ने आन्ध्र प्रदेश में जाकर श्री एन.टी. रामराव की कानूनी रूप से निर्वाचित सरकार को गिरा दिया. और उनके दामाद एन.चन्द्र बाबू नायडू को मुख्यमंत्री पद पर नियुक्त किया श्री रामलाल को इस काम की व्यापक आलोचना से त्यागपत्र देना पड़ा.
1985 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी एक बार फिर बहुमत से जीती, और श्री वीरभद्र सिंह फिर से मुख्यमंत्री बने. 1990 के विधानसभा चुनावों में, दो दलों की बजाय दो व्यक्तित्वों के बीच चुनाव हुआ था. भाजपा के श्री शांताकुमार और कांग्रेस के श्री वीरभद्र सिंह थे. भारतीय जनता पार्टी ने इस चुनाव में 46 सीटों पर जीत हासिल की और श्री शांताकुमार के नेतृत्व में फिर से सरकार बनाई. 5 मार्च 1990 को श्री शान्ता कुमार फिर से “मुख्यमंत्री” बने और प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी. लेकिन यह सरकार भी लगभग ढ़ाई साल ही चल सकी, क्योंकि बाबरी मस्जिद को गिराने के बाद तत्कालीन राज्यपाल श्री वीरेन्द्र वर्मा ने राज्य सरकार को निलंबित कर दिया. 15 दिसंबर 1992 को राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश जारी करके भारतीय जनता पार्टी की सरकार और विधानसभा को भंग कर दिया. इस समय तक राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू है. बाबरी मस्जिद के गिराए जाने से प्रदेश सरकार का कोई संबंध नहीं था, इसलिए राज्यपाल ने भाजपा सरकार को गिराना असंवैधानिक था. 1 दिसंबर 1993 में राज्य विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को फिर से बहुमत मिला। वर्तमान में कांग्रेस को 52 सीटें मिलीं, भाजपा को 8 सीटें मिलीं, और अन्य 8 सीटें निर्दलीय हैं। इस बार वीरभद्र सिंह फिर से मुख्यमंत्री बने.
1993 से 1998 तक का कार्यकाल राज्य के राजनीतिक इतिहास में एक सुस्त और विफल समय था. जबकि सरकारी तंत्र निरंकुश और सामंतवादी था, युवा वर्ग बेरोजगारी का सामना करता रहा. सरकारी क्षेत्र में बिना योग्यता के पार्टी कार्यकर्ताओं को नौकरी दी गई, और सरकारी नौकरी चिटों पर दी गई. कांग्रेस पार्टी को 1998 के विधानसभा चुनाव के लिए समय से पूर्व की घोषणा करनी पड़ी. पार्टी इन चुनावों में हार गई. फिर भी पार्टी ने सरकार बनाने के लिए मार्च 1998 में राजधानी शिमला में हिंसक हमले किए, जो प्रदेश में एक विशिष्ट संस्कृति थी. 5 मार्च 1998 को वीरभद्र की अल्पसंख्यक सरकार असफल हुई और 23 मार्च 1998 को भाजपा की सरकार प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व में बनी.
1998 से 2003 तक का समय प्रदेश की राजनीति और प्रशासन में एक महान दौर था. भाजपा की सरकार ने राज्य में नौकरियां बनाने के लिए निजी और सरकारी दोनों पक्षों में व्यापक कदम उठाए. केंद्र में भाजपा गठबंधन की सरकार होने से राज्य सरकार को फायदा हुआ. राज्य सरकार को तत्काल विकास के लिए प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने करोड़ों रुपये की सहायता दी। भाजपा में व्याप्त असंतोष ने एक नई समस्या पैदा की. पार्टी से असंतुष्ट लोगों ने “मित्रमंडल” बनाया, जो इस समस्या का कारण बना. प्रदेश सरकार के मंत्रियों ने ही पहली बार अपने मुख्यमंत्री पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए. सरकार केंद्रीय नेतृत्व के हस्तक्षेप से बच गई, अन्यथा राज्य सरकार फिर से ढ़ाई के दोष का शिकार हो जाती.
1998 में, राज्य सरकार ने हमीरपुर में तृतीय व चतुर्थ वर्ग की भर्ती के लिए अधीनस्थ सेवाएं चयन बोर्ड का गठन किया. 1998 से 2003 तक, बोर्ड ने हजारों पदों के लिए आवेदन स्वीकार कर सुचारू रूप से भर्ती कीं. कांग्रेस पार्टी के लिए बोर्ड की बढ़ती लोकप्रियता और इसके पूर्व अध्यक्ष सुरेन्द्र मोहन कटवाल द्वारा अपनाई गई कठोर नीतियां एक अलग चुनावी मुद्दा बन गईं. बोर्ड पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए, और युवा वर्ग को यह दिखाने की कोशिश की गई कि बोर्ड की चयन प्रणाली भ्रष्टाचार और गलत है. युवा वर्ग, जो वर्षों से बेरोजगारी का सामना कर रहे थे, ने आसानी से कांग्रेस पार्टी के इस झूठ बोल पर विश्वास कर लिया. दूसरी ओर, मित्रमंडल ने भी अपना प्रचार अभियान तेज कर दिया, जिससे भाजपा सरकार को नई चुनौती मिली. 2003 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को बुरी तरह से हार हुई. कांग्रेस को विधानसभा की 68 सीटों में से 43, भाजपा को 16 और अन्य को 9 सीटें मिलीं।
2003 से 2007 तक कांग्रेस पार्टी ने सरकार चलाई। पार्टी की सत्ता में आने के बाद, अधीनस्थ सेवाएं चयन बोर्ड को भ्रष्टाचार का केंन्द्र घोषित कर दिया गया, वह अगले पांच वर्षों में लगभग मर चुका था. राजनीति से प्रेरित होकर तत्कालीन अध्यक्ष सुरेन्द्र मोहन कटवाल के खिलाफ कई आपराधिक मामले दर्ज किए गए, जो निराधार थे और एक अच्छे प्रशासक को प्रताड़ित करते थे. प्रदेश सरकार ने अपने साढ़े चार वर्ष के कार्यकाल में सरकारी विभागों में मात्र 1250 भर्ती की, जिससे बेरोजगारी में शत-प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई. कुंठित युवा वर्ग असामाजिक प्रवृत्तियों की ओर बढ़ गया और आर्थिक संपन्नता को गहरा झटका लगा. राष्ट्रीय स्तर पर भी राज्य सरकार की अकर्मण्यता धीरे-धीरे सामने आई.
मार्च 2003 से अक्तूबर 2007 तक प्रदेश में कोई भी विकासात्मक कार्य नहीं किए गये। प्रदेश सरकार द्वारा अंतिम चरण में घोषणाओं का पिटारा खोलने की भनक चुनाव आयोग तक पहुंच चुकी थी। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर चुनाव आयोग ने राज्य सरकार के विरोध के बावजूद विधानसभा चुनावों की तारीख घोषित कर दी तथा साथ-साथ आचार संहिता भी लागू हो गई।
वीरभद्र सरकार की सभी योजनाएं इस तरह विफल हो गईं. भाजपा ने 2007 में हुए विधानसभा चुनावों में संगठित रूप से चुनाव लड़ा और बड़ी जीत हासिल की. इन चुनावों में भाजपा ने 41 सीटें, कांग्रेस ने 23 सीटें और निर्दलीय ने 4 सीटें जीतीं। प्रेम कुमार धूमल एक बार फिर राज्यपाल बने. नई सरकार के आने पर राज्य की सभी भर्ती संस्थाओं ने काम शुरू किया. युवा वर्ग को अवसर मिलने लगे और राज्य की अर्थव्यवस्था चली गई.
2007 की हार के बाद राज्य की कांग्रेस इकाई में दो अलग-अलग समूहों का उदय हुआ. एक श्री वीरभद्र सिंह ने नेतृत्व किया, जबकि दूसरा ठाकुर कौल सिंह, विद्या स्टोक्सव जी.एस वाली ने नेतृत्व किया. 2007 से जुलाई 2012 तक, कौल सिंह गुट का दबदबा बना रहा, यहाँ तक कि वीरभद्र सिंह के पुत्र विक्रमादित्य का प्रदेश युवा कांग्रेस का चुनाव तकनीकी कारणों से रद्द कर दिया गया था. 2009 के लोकसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह ने मंडी सीट से जीत हासिल की और केंद्र में इस्पात मंत्री बने. उस समय, उन्हें भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के कारण पद से त्याग देना पड़ा. लेकिन कांग्रेस पार्टी ने पूरे कालका-शिमला राष्ट्रीय राजमार्ग पर जिस व्यक्ति पर संगीत भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था, उसका स्वागत किया, जो भारतीय लोकतंत्र की विडम्बना है. 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी फिर से विजयी हुई, और श्री वीरभद्र सिंह छठी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने. इस चुनाव में कांग्रेस 36 सीटें और भाजपा 26 सीटें जीतीं. श्री वीरभद्र सिंह के मुख्यमंत्री बनने पर उन्होंने मंडी लोकसभा सीट छोड़ दी. उनकी पत्नी श्रीमति प्रतिभा सिंह ने 2013 में मंडी लोकसभा उपचुनाव में भारी अंतर से जीत हासिल की और भाजपा के जयराम ठाकुर को हराया. भाजपा ने 2014 के 16वें लोकसभा चुनाव में चारों सीट जीत कर इतिहास रचा।
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