“लोक गीत, लोक नृत्य व लोक-नाट्य”

प्रत्येक समाज में लोगों ने अकेले या सामूहिक मनोरंजन का कोई न कोई उपाय खोजा है। लोक-गीत, लोक-नृत्य और लोक-नाट्य इसी मनोरंजन के साधन हैं जिन्हें लोग अकेले, किसी विशेष उत्सव, अवसर, त्यौहार या अन्य खुशी के अवसर पर उपयोग करते हैं। लोक-गीतों का सर्वोच्च स्थान है क्योंकि वे लोक-नृत्य और लोक-नाट्य की प्रेरणा हैं।

लोक-गीत

लोक संगीत: हिमाचल प्रदेश के लोक-गीत बहुत सुंदर, मनोहर और प्यारे हैं। खेत-खलिहान से लेकर जंगलों, चारागाहों, मेलों और उत्सवों में इन लोक-गीतों की झंकार आप सुन सकते हैं। इन लोक-गीतों का विषय आम जीवन से लेकर इतिहास, धर्म, पुराण तक हो सकता है। हालाँकि, लोकगीत अक्सर प्रेम-गाथाओं, वीर-गाथाओं, बलिदान-गाथाओं, देव-स्तुतियों, ऋतु-प्रभात, सामाजिक बंधनों और उत्सवों से जुड़े होते हैं। इनमें दुःख और खुशी दोनों हैं। इन लोक गीतों को एकल, युगल या समूह में गाया जाता है। यह आवाज किसी गायन विशेषज्ञ की नहीं है; यह किसी सरल हृदय से निकली प्यारी आवाज है जो नियमों को तोड़कर मन को झकझोरती है। विशेष उत्सव, त्यौहार या मेले में गाते समय स्थानीय वाद्य यन्त्रों का गायन भी प्रयोग किया जा सकता है. अन्यथा, खेत-खलिहान, घर-घराट, पहाड़ी, चारागाह या जंगल में जब मन चाहे, युवक-युवतियों के सुरीले कंठों की आवाज को आप छोड़ नहीं सकते जब तक कि गाने वाले स्वयं अपना काम करके चले नहीं जाते।

चम्बा के लोक गीतों में “फुलमु-रांझ”, “कुंजू-चंचलो”, “राजा-गद्दण”, “भुनकु-गद्दी”, “सुहीरानी-गीत”, “लच्छी” आदि प्रसिद्ध हैं। कांगड़ा के लोकप्रिय गीतों में “हरि सिंह राजेया”, “नूरपुरे दिए खतरेटिए”, “पृथ्वी-सिंह-इन्द्रदेई”, “सुलिया टंगोई गई मेरी जान” आदि शामिल हैं। इसके अलावा, कांगड़ा खंड के विवाह संबंधी गीत, जिन्हें “घोड़ी” कहा जाता है, अपनी मिठास और विषय के लिए बहुत लोकप्रिय हैं। विवाह से जुड़े कई अन्य गीत हैं, जिन्हें “सेठणियां” कहा जाता है, जो बारातियों में से दुल्हे के करीबी दोस्तों को व्यंग्यात्मक रूप से नामित करते हैं। प्रसिद्ध प्रेम लोक गीतों में से कुछ हैं: “निर्मण्डा रीए ब्राह्मणिए”, “मनी रामा पटवारिया”, “न मन्या ओ हंसा”, “जिया लाला बिंदिए” और मंदिर की देवी भेटें।

बिलासपुर की गंगी में युगल मध्य युगल गीत गाए जाते हैं, जैसे “गम्भरी”, “बालो”, “झंज्युटी” और “मोहणा”, जिसका संबंध इतिहास और मातृ प्रेम से है। जब मोहन अपने भाई को बचाने के लिए फांसी के तख्ते पर चढ़ने लगा, तो उसकी बहन ने मोहन का गीत गाया, जो बाद में “मोहना” नामक प्रसिद्ध गीत बन गया। लाह्मण, झूरी, नाटी और हार महासू (शिमला) और सिरमौर के प्रसिद्ध गीत हैं सिरमौर का “हार” और बिलासपुर, कांगड़ा और मण्डी का “झेड़ा”. ये गीत वीर राजाओं या वीर पुरुषों की गाथा गाते हैं।

लाहौल-स्पीति और किन्नौर में लोकगीत हैं, जिनका अधिकांश समूहगान है।

लोक-नृत्य

लोक कला: लोक गीत और लोक नृत्य दोनों उतना ही महत्वपूर्ण हैं। हिमाचल प्रदेश के स्थानीय नृत्यों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है एकल या सामूहिक एकांकी नृत्य में निचले हिमाचल प्रदेश का “गिद्धा” और सिरमौर, शिमला और सोलन का “मुजरा” शामिल हैं। इस क्लास के अन्य नृत्यों में “प्रेक्षणी”, “नतरांभ” और “चेड़ी” शामिल हैं। इस तरह का नृत्य करने वाले गोलाकार में बैठते हैं। वे गाते रहते हैं और स्थानीय संगीत उपकरणों को बजाते रहते हैं। बीच-बीच में एक भागीदार उठकर नाचता रहता है, उसके बैठने पर दूसरा नाचता है, और कभी-कभी दो या तीन लोग मिलकर भी नाचते हैं। गिद्धा एक महिला नृत्य है। यह नृत्य कीर्तन, शादी या किसी अन्य विवाह समारोह में किया जाता है। हिमाचल प्रदेश में, सामूहिक नृत्य एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। नृत्य करने का स्थान घर का आगन या शहर का सबसे बड़ा खुला स्थान हो सकता है। ऊपरी भाग में सामूहिक नृत्यों में स्त्रियां और पुरुष अलग-अलग भाग लेते हैं, लेकिन दूसरे भागों में सभी एक ही मंच पर मिलकर नाचते हैं। पुरुष और स्त्रियां भी अक्सर गद्दियों पर अलग-अलग नाचते हैं।

नाटी

हिमाचल प्रदेश के मध्य क्षेत्र में एक देश-प्रसिद्ध सामूहिक नृत्य नाटी है, जिसे शिमला में “गी” या “माला” भी कहते हैं। नाटी में सभी लोग आ सकते हैं, चाहे वे बच्चे हों या बुढ़े। सभी लोग एक दूसरे का हाथ पकड़कर पैर आगे पीछे रखते हुए नाचते रहते हैं और गाने की लय के अनुसार शरीर के अन्य अंगों को हिलाते रहते हैं। नाटी वाद्य-यंत्र के बिना भी चल सकती है। इस नृत्य में कोई नियम नहीं होते, दर्शकों की आवश्यकता नहीं होती, और इसे “स्वान्तः सुखाय” कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। जो नाटी में जब चाहे बैठ सकता है और जब चाहे शामिल हो सकता है। खुले स्थान पर लकड़ी का अंगीठा जला दिया जाता है और उसके आसपास नृत्य होता है नाटी नृतय दिन भी चलता है। नाटी के क्षेत्र और अभिनय के अनुसार लुड्डी, ढीली, फेटी, देहरी, बुशैहरी, बाहडु, कड़थी, लाहौली, बखैली, खरेल, गड़भी, दयोखल और जोण नाटी हैं।

कड़थी

इनमें से एक है कुल्लू की कड़ी नाटी, जो चांदनी रात में खरीफ फसल के बाद खुले में की जाती है। पहले इसे धीरे-धीरे शुरू किया जाता है और जब गति पूरी हो जाती है, तो स्त्रियां अपना-अपना नृत्य साथी चुनकर नाटी में प्राण डालकर आगे चलाती हैं।

घुघटी

मध्य क्षेत्र के किशोरों में यह लोकप्रिय नृत्य है। इसमें नर एक दूसरे के पीछे खड़े हैं। नीचे से एक किनारे से पीछे वाले आगे वाले कोट को पकड़ो। टोली का नेता टेढ़े-मेढ़े तरीके से आगे की ओर झुकता है और ‘घुघटी’ गीत गाता है। शेष उसका पीछा करते हैं।

बिड्सू

यह शिमला के ऊपरी हिस्से और सिरमौर के पूर्वी हिस्से में लोकप्रिय है। मेलों के दौरान अक्सर खुंडों द्वारा किया जाता है। खंड, एक लोकप्रिय खर्शो टोली है। जब वे किसी मेले में जाते हैं तो सड़क पर नाचते हैं। तलवारें, डांगरे, लाठी, खुखरी या रूमाल इनके हाथ में होते हैं। ढोल और रणसिंगा एक साथ बजते हैं। यह रात को नृत्य करते समय हाथ में मशालें लेते हैं। वे मेले में पहुंचकर कुछ देर तक नृत्य करके चले जाते हैं। शाम को फिर से नृत्य करते जाते हैं। बिड़सू गीत भी नृत्य के दौरान गाये जाते हैं।

बुडाह

यह दीवाली या अन्य बुड़ाह: उत्सवों के समय १०-१५ आदमियों की टोली द्वारा सामूहिक तौर पर किया जाता है। 4 से 5 आदमी हुड़की (वाद्य) बजाते हैं और शेष डांगरों को हाथ में पकड़े हुए गीत गाते हुए नाचते हैं। इन गीतों में वीर गाथाओं का वर्णन है, जिनमें सिद्ध और उसके गढ़ का गीत अधिक लोकप्रिय है। इस नृत्य में दाएं से बाएं तेजी से नाचा जाता है, पुरुष पहले चलते हैं और महिलाएं उनके पीछे चलती हैं। नाटी की तरह लगने वाले सिरमौर के अन्य लोक नृत्य हैं “रासा और क्रासा।”

दांगी और डेपक

चम्बा के छतराड़ी इलाके में ये लोक नृत्य हैं: डांगी नाच, गद्दी औरतों का सामूहिक नृत्य है जो मेलों या “जातरा” में किया जाता है, और डेपक नाच, जब गद्दी अपनी भेड़-बकरियां लेकर कांगड़ा की ओर चलते हैं।

पांगी फूल

यात्रा नृत्य: पहला हिमपात होने से पहले पांगी की महिलाएं यह नृत्य करती हैं। नृत्यकार एक दूसरे को काटती हुई पंक्तियों में नृत्य-स्थान में प्रवेश करते हैं और बाजू में बाजू डालकर गोलाकार में नाचना शुरू करते हैं. यह चाल नृत्य की शुरुआत है। घुटनों को झुकाते हुए एक कदम आगे, एक कदम पीछे और फिर किनारों को कदम लिया जाता है। यह बार-बार किया जाता है। किन्नौर को किन्नरों की धरती होने के कारण नृत्यों का घर भी कहा जाता है। यहाँ प्रस्तुत नृत्यों में बौद्ध और हिंदू दोनों धाराएं शामिल हैं। नीचे कुछ नृत्यों का विवरण है।

क्याांग

यह किन्नौरों या किन्नर जनजाति का प्रसिद्ध लोक नृत्य है, जिसमें मर्द और औरतें एक अर्द्ध-वृत्त में खड़े होते हैं, बाजकी (यन्त्र) के मध्य में। पुरुषों की टोली का एक वृद्ध पुरुष और स्त्रियों की टोली का एक वृद्ध स्त्री नेतृत्व करते हैं और बाद्य द्वारा निर्धारित धुन के अनुसार कदमों की चाल रखते हैं। नृत्य की गति के साथ, प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे का हाथ पकड़ता है। टोली का नेता “हो” कहते हुए पूरे आगे को आधा झुका देता है। टोली में दो आदमी लोक-गीत गाते हैं, और बाकी लोग उनके पीछे चलते हैं।

बाक्यांग

यह किन्नौर का दूसरा प्रकार है, जिसमें नृतक एक दूसरे के सामने दो या तीन पंक्ति बनाते हैं। एक पंक्ति के नृतक पीछे हटकर सामने की पंक्ति के आगे आते हैं। यह क्रम बार-बार दोहराया जाता है। यह नृत्य अक्सर स्त्रियों ने किया जाता है।

बानाग्च्यु

यह किन्नौर का तीसरी प्रकार है, जिसमें पुरुष स्वतंत्र रूप से चलते हैं। नृतक बाजकियों के चारों ओर गोल नृत्य करते हैं। महिलाएं गाती हैं। किन्नौर में अन्य नृत्यों में पनास, चम्पा, चामिक, रवार, डेयांग और जोगसन शामिल हैं।

दानव नृत्य

लहौल-स्पिति व ऊपरी किन्नौर में गोंफाओं में लामाओं द्वारा किया जाता है। लामा गोफाओं के आंगन में लोसर (नव वर्ष), दाछांग, “थोंग-थोंग” और “नमगान” जैसे उत्सवों पर “वाग” (मुखौटे) पहनकर नृत्य करते हैं, जो देवताओं की दानवों पर विजय को दर्शाता है।

लोक नाट्य

पहाड़ी भाषी-लोकनाट्य एक महत्वपूर्ण कड़ी है क्योंकि यह बहुत प्राचीन काल में लोगों के मनोरंजन का एकमात्र साधन था, अन्य साधनों के अभाव में। रामलीला और कृष्णलीला जैसे नाटकों ने अब हमारे लोक नाट्य में प्रवेश कर लिया है, लेकिन उनका असली स्वरूप बहुत पुराना है। दीवाली के वाद से लेकर बैशाखी के प्रारंभ तक इन लोक नाट्यों का आयोजन रात को किया जाता है, क्योंकि यह समय है जब लोग कृषि कार्य से छुट्टी लेकर मनोरंजन करने के लिए समय निकाल सकते हैं। निम्नलिखित हिमाचल प्रदेश के लोक नाट्य हैं

करियाड़ा या करियाला

यह राज्य के मध्य भाग में शिमला सहित अन्य क्षेत्रों में लोकप्रिय है। संस्कृत शब्द “क्रीड़ालय” का विकृत रूप करियाला लगता है। इस नाटक को खेलने वाले, बुलावा मिलने पर गांव में किसी भी खुले स्थान पर इसका प्रदर्शन करते हैं. इसके लिए कोई विशेष स्टेज या मंच नहीं होता। बिलासपुर में इस करियाला लोक नाट्य को ‘स्वांग’, मण्डी में ‘बांठड़ा’ और कांगड़ा में ‘भगतु’ कहा जाता है, और इसके कलाकारों को क्रमशः करियालची, स्वांगची, बांठड़िए और भगतिए कहा जाता है। इनके पास अपने वाद्य यंत्र और अपने वस्त्र, जो पात्रों की भूमिका के अनुसार बदलते रहते हैं। करियाला का मंच अखाड़ा कहलाता है। धूनी (आग का अंगीठा) अखाड़े में जलाई जाती है और आमतौर पर ऐसा स्थान चुना जाता है जहां लोग कलाकारों को आसानी से देख सकें। बाजकी, जिसमें ढोल, नगाड़ा, डामण, डौरु, कानल और रणसिंगा शामिल हैं, असली नाटक की शुरुआत करते हैं। कलाकारों को कपड़े आदि बदलने के लिए किसी कमरे या बाहर पर्दे लगाए जाते हैं। जब सब कुछ ठीक हो जाता है, तो संस्कृत के नाटकों की नाटी की तरह, पहले एक कलाकार, जिसे चन्द्रावली कहते हैं, और दूसरा सिद्धा, बड़े ठाट-बाट से पर्दे के पीछे से दर्शकों के मध्य होते हुए अखाड़े में आते हैं। दोनों धूनी के आसपास नाचते हैं। अखाड़ा बांधना इसका नाम है। तब दोनों पर्दे के पीछे चले जाते हैं। अब प्रथा के अनुसार साधु का स्वांग होता है, जिसमें अक्सर साधुओं को बदनाम किया जाता है। इसके बाद अतिरिक्त स्वांग प्रदर्शित किए जाते हैं। यद्यपि इन स्वांगों का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन है और उनके प्रत्येक शब्द हंसाने वाला है, वे समाज के ठेकेदारों, अर्थात् साधुओं, पण्डितों, बाबू लोगों, अर्थात् नौकरी करने वालों (मेम और साहब) और साहूकारों को भी व्यंगात्मक ढंग से चित्रित करते हैं।

कलाकार कोई भी बोली नकल किए जाने वाले चरित्र को ध्यान में रखते हुए बोल सकते हैं, पहाड़ी, हिन्दी और अंग्रेजी अक्षरों का मिश्रण करते हुए। गीत भी प्रस्तुत किए जाते हैं। करियाला का जन्म कब हुआ, इसका अनुमान लगाना असंभव है। लेकिन कार्यक्रम की शुरुआत में चन्द्रावली का मंच पर आना, संस्कृत नाटकों की तरह, ईसा पूर्व से ही प्रचलित है। इसे सिद्धों या नार्यों के समय से प्रचलित होना भी माना जा सकता है, क्योंकि सिद्धा आया था। बिलासपुर का स्वांग, मण्डी का बांठड़ा और कांगड़ा का भगतु करियाला से बहुत मिलते हैं, लेकिन समय और स्थान के अनुसार इनमें कुछ बदलाव किया गया है।

बुडा सीह

यह कलाकार जुब्बल और रोहडू क्षेत्र में प्रचलित किसी राणा के कार्यों से संबंधित गाथा गाते हैं। इसमें नृत्य और गायन दोनों की नाटिका मिलती है।

रावल

यह भी एक लोक-नाटक है जो मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में चलता है, जिसमें एक लड़की की कहानी है जो किसी अज्ञात व्यक्ति से प्रेम करती है। वह अपने पिता के मना करने पर भी उससे विवाह कर लेती है, लेकिन कुछ दिनों के बाद वह उसे छोड़कर भाग जाता है। उसे अपने पिता के घर लौटना होगा। वह अंततः आत्महत्या कर लेती है।

दोगानों का नाटक

इसके अलावा, मंच पर कई दोगानों (फुलमु-रांझ, कुंजु चंचलों, गंगी) को नाटक के रूप में दिखाया जाता है। एक व्यक्ति रांझ-कुंजु या लड़के का अभिनय करता है, जबकि दूसरा फुलमु-चंचलो या गंगी आदि का अभिनय करता है। साथ ही, विवाह के दिन निम्नलिखित क्षेत्रों में स्त्रियां पीछे से विवाह वालों के घर नृत्य और गायन करती हैं, जिस दिन दुल्हा बारात लेकर चला जाता है। कई लड़कियां और स्त्रियां एक साथ हास्य-नाटक करती हैं, पुरुषों का लिबास पहनकर। मनोरंजन करना उनका एकमात्र लक्ष्य है।

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