“त्यौहार व मेले-2”
“फुलेच”
यह भादों के अंत या आसुज के शुरू के महीने में मनाया जाता है
किन्नौर का त्यौहार मुख्यतः फूलों का है. यह त्यौहार अलग-अलग दिनों पर मनाया जाता है. उख्यांग भी एक शब्द है. “उ” फूल कहते हैं और “ख्यांग देखो” कहते हैं. उख्यांग का अर्थ है फूलों का आनन्द लेना. गांव के पास पहाड़ियों की चोटी पर यह त्यौहार आमतौर पर मनाया जाता है. ग्रामवासी टोलियां एक या दो दिन पहले पहाड़ियों की चोटियों से रंग-बिरंगे फूल लाते हैं. हर गाँव के लोग त्यौहार के दिन चौराहे पर मिलते हैं. मंदिर से ग्राम देवता की मूर्ति वहां ले जाया जाता है. लाए गए फूलों के हार को देवता को चढ़ाया जाता है और फिर लोगों को बाँट दिया जाता है. इस समय, देवता का पुजारी मौसम, फसल, आदि की भविष्यवाणियां करता है. लोग अधिक से अधिक फूल घरों में लाते हैं.
“सर”
प्रथम आसूज (सितंबर) यह त्यौहार है. इसमें खाना भी पकाया जाता है. भादों महीने की अंतिम रात को, एक थाली में गलगल के खट्टे को मूर्ति की तरह सजाकर, उस पर फूल और दीपक जलाकर घर-घर जाता है. लोग उसके सामने पैसे चढ़ाते हैं और शीश झुकाते हैं. इस दिन कई जगह मेले भी होते हैं. बरसात की समाप्ति और आषाड़ी फसल के आने की खुशी में यह त्यौहार मनाया जाता है. हमीरपुर राज्य में स्थित लदौर
स्थान पर पर्यटन उत्सव लगता है. तीज त्यौहार राज्य के लोगों के सांस्कृतिक जीवन का एक विशिष्ट चित्रण करते हैं. इनसे लोगों के जीवन की पहेलियों के विकास की झलक मिलती है. यह उत्सव लोगों को एकजुट करता है. हिमाचल प्रदेश में कई बड़े त्यौहार मनाए जाते हैं, जैसे दिवाली, दशहरा शिवरात्रि, होली, रक्षा-बंधन, लोहड़ी जन्माष्टमी, आदि, लेकिन सायर का त्यौहार उनमें सबसे महत्वपूर्ण है. हिमाचल प्रदेश में सायर को मनाने का एक अलग तरीका है. बरसात का प्राकृतिक प्रकोप खत्म होने पर और खरीफ की फसल के आगमन की खुशी में यह उत्सव मनाया जाता है. यह उत्सव भादों का मौसम समाप्त होने पर मनाया जाता है. इस दिन सिद्ध और नाग पुरुष घर-घर जाकर सायर के फूल और फल बांटते हैं. घर में नाना खाना बनाया जाता है. सायर आने से घर साफ हो जाता है. नए कपड़े सभी पहनते हैं, चाहे बच्चे हों या बुढ़िया. सक्रांति के दिन लोग सुबह धूप जलाकर पूजा करते हैं. सायर का दिन शुभ दिन है. इस उत्सव को मनाने के लिए लोग जगह-जगह मिलते हैं. अखरोट खेलते हैं इस समय गाय, बैल, भेड़-बकरी भी कूदना नाचना शुरू कर देते हैं. धौलाधार में बसे कुछ गांवों में, जैसे बड़ा भंगाल, बीड़ और देवल कंडी, महिलाएं नाचती, गाती हैं और पुरुषों ने विभिन्न खेल खेले हैं.
हिमाचल प्रदेश के अधिकांश हिस्सों में सैर का उत्सव मनाया जाता है. शिमला, कांगड़ा, चम्बा, मंडी, सिरमौर, हमीरपुर, बिलासपुर, सोलन और ऊना इसमें शामिल हैं। शिमला और सोलन के अलग-अलग स्थानों पर भैसों की लड़ाई भी होती है. शिमला के निकट मशोबरा और अर्को में तो भैंसों (झोटों) की लड़ाई प्रसिद्ध है. सालभर से लोग अपने भैंसे को भैंसों की लड़ाई में भाग लेने के लिए तैयार करते हैं, और गांव के लोग खुशी से अपने भैंसे को सायर मेले में लाते हैं. भैंसा विजेता को पुरस्कार भी मिलता है और भैंसे का मालिक खुद को गौरवशाली महसूस करता है. इससे क्षेत्र में विभिन्न खेलों का आयोजन होता है.
“दीवाली”
दीवाली देश भर में एक विशिष्ट त्यौहार है. कार्तिक अमावस्या, महीने की सबसे अंधेरी रात, इसे मनाया जाता है. पौराणिक तौर पर इस उत्सव को भगवान राम के चौबीस वर्ष के बनवास काटने के बाद अयोध्या लौटने से जोड़ा जाता है. वैसे भी, यह रोशनी का त्यौहार है. जिसमें लक्ष्मी-पूजन विशेष महत्व रखता है. लोगों का मानना है कि इस दिन घरों को सजाकर और रोशनी जलाकर लक्ष्मी का पूजन करने से लक्ष्मी प्रसन्न होगी और सारा साल सुख-समृद्धि से गुजरेगा. लक्ष्मी धन और सौभाग्य की देवता है. गांवों में बच्चे दीवाली 8 दिन पहले ही मनाने लगते हैं। बच्चे घास-फूस का एक लम्बा गट्ठा बनाकर, उसे “घेरसृ” या “कहारू” कहकर पुकारा जाता है. इसे अन्धेरा होने पर घरों से दूर खेतों में जलाते हैं, “आई दियाली (दीवाली), जल वे मेरेया घेरसुआ” जैसे लयात्मक गीत गाते हुए. यह कार्यक्रम आठ दिन पहले शुरू होता है और दीवाली की रात्रि तक चलता है. अंतिम दिन ‘धेरसू’ जलाए जाते हैं, जहां भोजन और अन्य उपहार बांटे जाते हैं. दीवाली के दिन प्रदेश के निचले निम्नलिखित क्षेत्रों में पकाया जाने वाला चावल के आटे का एक विशेष पकवान है, जिसे “ऐकली” या “ऍकलू” कहा जाता है खुले बर्तन में चावल का आटा मिलाया जाता है. “ऐंकली” को तवे पर चपाती की तरह डालकर बनाया जाता है, और “ऍकलू” को 40 से 50 छोटे गोल खाने से बनाया जाता है. बिलासपुर, हमीरपुर-कांगड़ा में इसे “चुआंसी” कहते हैं. नवविवाहित लड़कियां दीवाली पर अपने मायके जाती हैं. परम्परागत पकवानों के स्थान पर मिठाई आदि का प्रचलन अब बढ़ गया है.
“बरलाज”
दीवाली के दूसरे या तीसरे दिन बरलाज और उसके अगले दिन ‘भैया दूज’ का त्यौहार मनाया जाता है, जिसमें उपरोक्त पकवान भी पकाए जाते हैं. बरलाज के दिन कारीगरों को कोई काम नहीं करना पड़ता, न ही जमींदार हल या अन्य उपकरण चलाते हैं. यह भी विश्वकर्मा दिवस कहलाता है. भैया दूज वाले दिन बहनें अपने भाइयों के माथे पर टीका लगाकर उनकी भलाई और सुख की कामना करती हैं.
“बुढ़िया दीवाली”
मंघर अमावस्या दीवाली के ठीक एक मास बाद मनाया जाता है. रामायण या महाभारत का गायन करते हुए सभी लोग अंगीठी के चारों ओर नाचते हैं. देवताओं और राक्षसों के बीच बनावटी संघर्ष दिखाया जाता है, जिसमें देवताओं की जीत होती है. लहौल में, इस त्यौहार को “खोजाला” कहते हैं और माघ पूर्णिमा को भी मनाया जाता है. शाम को एक व्यक्ति घर-घर से मशाल जलाकर गांव के एक ऊंचे स्थान पर जाता है. वहां सभी मशाले एक जगह रखे जाते हैं और देवदार की लकड़ियां एक अंगीठी में जलायी जाती हैं. अंगीठी में “गँफे” (गुरू) और ब्रजेश्वरी देवी के नाम पर देवदार की पत्तियां डाली जाती हैं. तब सब लोग अंगीठी के आसपास बैठ जाते हैं. एक दूसरे पर बर्फ के गोले बनाकर फेंकना भी शुभ है, जिसे “भटाका”, या बर्फ फेंकना कहते हैं.
“लोहड़ी, माघी”
प्रथम माप (संक्रांति) यह त्यौहार है. यह निम क्षेत्र में लोहड़ी या मकर-संक्रांति कहलाता है, जबकि मध्य क्षेत्र में माघी या साजा कहलाता है. इस दिन वैशाखी की तरह तीर्थस्थलों पर स्नान करना भी शुभ है. मैं चावल और माश (उड़द) की खिचड़ी बनाता हूँ, जो घी या दहीं से खाया जाता है. पिछली रात चावल के आटे के पकवान बनाए जाते हैं और चावल और तिल को घी में भूनकर ‘तिलचीली’ बनाते हैं. रात को गांव में अंगीठे जलाए जाते हैं, जहां लोग भजन-कीर्तन करते हैं. लोग सुबह वहीं से उठकर ठण्डे पानी से स्नान करने के बाद घर जाते हैं.
गांव के बच्चे, लड़के और लड़कियां, दीवाली की तरह, आठ दिन तक घर-घर जाकर लोहड़ी के गीत गाते हैं. बच्चों को पहले और अन्तिम दिन हर घर में अनाज या पैसे दिए जाते हैं. माघ महीने में खेती नहीं होती, इसलिए ग्रामीण अपने रिश्तेदारों से मिलने में बिताते हैं. ..लोहड़ी मुख्यत: किसानों और फसलों के लिए समय का त्यौहार है. पंजाब में यह अधिक आम है.
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