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“प्रशासनिक ढांचा”

प्रशासनिक ढांचा :-

मंत्रियों की सहायता के लिए प्रदेश में स्थाई विभाग के कार्य की देखभाल के लिए स्थाई सचिव (Secretary) होते हैं जो प्राय: भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी होते हैं। विभागों से स्थाई तौर पर सम्बन्धित होने के कारण ये अधिकारी विभाग मंत्री को विभाग के बारे में सही सूचना देकर नीति-निर्धारण के बारे मैं सहायता करते हैं। प्रदेश स्तर पर प्रत्येक विभाग के कार्य क्षेत्र की देख-भाल करने के लिए एक विभागाध्यक्ष होता है जिसे प्रायः निदेशक कहते हैं। यह अधिकारी भी प्रायः भारतीय प्रशासनिक सेवा से होता है। तकनीकी विभागों की सूरत में विभाग से पदोन्नत अधिकारी विभागाध्यक्ष लगाए जाते हैं।

विधानसभा:-

इस समय राज्य में 68 सदस्यीय विधानसभा है, जिसके सभी सदस्य चुने जाते हैं और बैठक में प्रवेश करते हैं. एक विधानसभा सदस्य लगभग 75,000 लोगों का प्रतिनिधित्व करता है. विधानसभा को संविधान की प्राथमिक सूची में सूचीबद्ध सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार है. इसके अलावा, विधानसभा संविधान की समवर्ती सूची में सूचीबद्ध विषयों पर भी कानून बना सकती है. उसे लागू करने से पहले राष्ट्रपति की स्वीकृति चाहिए. यदि राज्य विधान सभा और संसद दोनों कानून बनाती हैं, तो संसद के कानून को समवर्ती सूची में वर्णित किसी विषय पर प्रधानता मिलेगी. संविधान की धारा 168 राज्य विधान सभा का गठन करती है. बजट पारित करके विधानसभा राज्य की आर्थिक व्यवस्था पर भी अधिकार रखती है. विधानसभा की स्वीकृति से ही अन्य कर लगाए जा सकते हैं. विधानसभा शासन पर भी नियंत्रण रखती है क्योंकि मंत्रीमण्डल उसके कामों के प्रति उत्तरदायी है.

अध्यक्ष:

संविधान की धारा 172 के अनुसार, प्रत्येक विधान सभा अपने पहले सत्र में चुने गए सदस्यों में से एक को अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुनती है. विधानसभा की बैठकों को अध्यक्ष या उसके अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष अध्यक्षता करते हैं. अध्यक्ष सदन पर नियंत्रण रखता है, इसलिए पद संवैधानिक और गरिमामय है.

न्यायपालिका और न्याय प्रशासन:

स्वतंत्र भारत के संविधान में न्यायपालिका का महत्वपूर्ण स्थान है. न्यायपालिका का कर्तव्य है कि संविधान की सही पालना हो रही है और नागरिकों को संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों की न्यायिक व्याख्या और पुनरावलोकन द्वारा रक्षा हो रही है.

हिमाचल प्रदेश की हर रियासत में छोटा-मोटा न्यायालय था, जिसमें राजा ही प्रधान था. कानून और न्याय राजा चाहते थे. भारत सरकार के हिमाचल प्रदेश न्यायालय आदेश, 1948 से हिमाचल प्रदेश का न्यायिक प्रशासन पुनर्गठित और नियंत्रित किया गया. यह आदेश राज्य स्तर पर न्याय आयुक्त का न्यायालय, दो जिल व सत्र न्यायधीशों और 27 अन्य अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना करता है. 15 अगस्त, 1948 को न्याय आयुक्त की अदालत खुली. श्री जे. एन. बैनर्जी हिमाचल प्रदेश के पहले न्यायाधीश बने.

भारत सरकार ने 1966 में दिल्ली उच्च न्यायालय अधिनियम, 1966 पारित किया और मई 1967 में इसका अधिकार क्षेत्र हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय शासित प्रदेश पर बढ़ाया. इस अधिनियम के तहत, दिल्ली उच्च न्यायालय की एक पीठ, न्याय आयुक्त का न्यायालय को समाप्त करके शिमला में स्थापित की गई, और 1 मई 1967 से हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय की स्थापना तक यहां काम करती रही.

हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय:

HIGH COURT OF HP
HIGH COURT OF HP

25 जनवरी, 1971 को हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्याधिकार मिलने पर त्रि-सदस्यीय हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय की स्थापना की गई. इस उच्च न्यायालय का पहला मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति मिर्जा हमीदुल्ला बेग था. वर्तमान में नौ न्यायाधीशों, मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हैं. वर्तमान में, हिमाचल प्रदेश न्यायिक सेवा के सदस्य उप-मण्डलीय न्यायिक दण्डाधिकारी (Sub Division Judicial Magistrates) न्यायिक प्रशासन को नियंत्रित करते हैं. मुख्य न्यायिक दण्डाधिकारी, जिला स्तर पर हिमाचल प्रदेश न्यायिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी हैं भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973, और भारतीय व्यवहार प्रक्रिया संहिता, 1908, इन अधिकारियों को अधिकार देते हैं. न्यायिक मण्डल के स्तर पर जिला व सत्र न्यायधीश हैं। ये अधिकारी या तो हिमाचल प्रदेश न्यायिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारियों से पदोन्नत किये जाते हैं या वकीलों से सीधे भर्ती किये जाते हैं. आपराधिक और व्यवहार मुकदमें में न्यायिक मुख्य न्यायिक दण्डाधिकारियों के फैसलों की अपीलें जिला सत्र न्यायाधीशों और उच्च न्यायालय में की जाती हैं।

भारत के राष्ट्रपति संविधान की धारा 217 के तहत उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं. राज्यपाल उच्च न्यायालय की सिफारिश पर बाकी अधिकारियों को नियुक्त करता है. न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति 60 वर्ष और मुख्य न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति 62 वर्ष है।

“हिमाचल प्रदेश लोकायुक्त”

 

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