हिमाचल प्रदेश में कला के अन्य क्षेत्रों का विकास हुआ है, लेकिन मूर्तिकला भी पीछे नहीं है। पुराने समय से आज तक कई सुंदर मूर्तियों का निर्माण हुआ है। पाषाण, काष्ठ और धातु की मूर्तियों से इस कला का विकास हुआ है।
1. पाषाण कला
कांगड़ा में पाए जाने वाले मसरूर मंदिर और पाषाण मूर्तियां इसका सबसे अच्छा उदाहरण हैं। साथ ही हाटकोटी, निरथ, निर्मण्ड और ममेल (करसोग) के मंदिरों और बिलासपुर के गूगा-गहेड़वीं मंदिर भी इस कला का उदाहरण हैं । हिमाचल प्रदेश में लगभग हर गांव में देवताओं की पाषाण मूर्तियां हैं, जो इस क्षेत्र में इस कला की लोकप्रियता का संकेत हैं।
2. काष्ठ शिल्पकला
यद्यपि मंदिरों में लकड़ी की मूर्तियां नहीं रखी जाती हैं, मंदिरों की दीवारों में रामायण, महाभारत या पुराणों की कहानियों से चित्र बनाए गए हैं। भरमौर में लक्षणा व शक्ति देवी के मंदिर, निर्मण्ड (कुल्लू) में दखणी महादेव, लाहौल में मृकुला देवी, मण्डी में मगरू महादेव और शिमला में मानण के मंदिर लकड़ी की मूर्ति-कला का उदाहरण हैं।
3. धातु मूर्तिकला
हिमाचल के मध्य और ऊपरी हिस्से में लगभग हर गांव का अपना देवता है, जिनकी मूर्तियां पीतल, चांदी या सोने की लघु या विशाल आकार की हैं और उनकी बनावट स्पष्ट है। कई मूर्तियों को देखकर लगता है कि वे आप से बात कर रहे हैं। इन मूर्तियों को बहुत प्राचीन काल से पिछली सदी तक बनाया गया है। देवी मंदिरों में धातु की मूर्तियां हैं। जुब्बल के हाटकोटी मंदिर में महिषासुर मर्दिनी, चम्बा में लक्षणा देवी, शक्ति देवी, नारसिंह, गणेश, नन्दी, विष्णु, लाहौल में मृकुला देवी, कुल्लू में त्रिपुरा सुन्दरी और सराहण में भीमाकाली की मूर्तियां हैं, जो कला का अद्भुत उदाहरण हैं। यह मूर्ति भी पहाड़ी जीवन के सांस्कृतिक पक्ष से जुड़ी हुई है। मिट्टी या आटे से बनाए गए गणेश और अन्य देवी देवताओं की मूर्तियां विशेष उत्सवों पर बनाई जाती हैं। जो बाद में पानी में बह जाते हैं। कई बार मिट्टी की मूर्तियों को सुरक्षित रखा जाता है।
4. हस्तकला
कई प्रकार की हस्तकला हिमाचल की भौगोलिक स्थिति, ऐतिहासिक परम्परा, धार्मिक विश्वास, जलवायु की विविधता और लोगों की मेहनत ने जन्म दी है। जो मिट्टी के बर्तनों, खिलौनों और विश्व भर में प्रचलित ऊनी वस्त्रों के रूप में देखा जा सकता है। व्यापार भी इस कला का उपयोग करता है। निम्नलिखित वस्तुएं हिमाचल प्रदेश के लोगों की कला में विकसित हुई हैं:
वर्तन
पहाडो में मिट्टी के बर्तन अभी भी लोकप्रिय हैं, हालांकि वे लोहे या स्टील से बनाए जाते हैं। हिमाचल प्रदेश में मिट्टी के बर्तनों का बड़े चाव से प्रयोग होता है। ब्रतनों को आम लोग नहीं बनाते, बल्कि समाज का एक विशेष वर्ग, जिसे “कुम्हार जाति” कहते हैं, इस काम में अद्भुत है। बर्तन बनाने के लिए एक विशिष्ट तरह की चिकनी मिट्टी का प्रयोग किया जाता है। मिट्टी रौदी जाती है, फिर कुम्हार एक विशेष यंत्र, जिसे “कुम्हार का चक्र” कहते हैं, पर गिली मिट्टी के ढेले रखता है, जिससे उचित प्रकार का बर्तन बनाया जाता है। बर्तन को सही रूप देने पर उस पर काले रंग का चित्र बनाया जाता है। फिर आवश्यकतानुसार लकड़ी और गोबर के उपलों को एकत्र करके जगह खोदकर आग जलाई जाती है। उसमें सभी कच्चे बर्तन क्रमानुसार रखे जाते हैं।
ऊपर से पत्थर लगाया जाता है। पांच या सात दिन के बाद मिट्टी उठाकर बर्तन निकाल लिए जाते हैं और कुम्हार घर-घर जाकर उन्हें प्रयोग के लिए बेचते हैं। ये बर्तन कई प्रकार के होते हैं और घर में बहुत से काम करते हैं। इनमें से कुछ विशिष्ट हैं: “घड़ा” जो पानी भरने और रखने के लिए प्रयोग किया जाता है, “नहौण” जो नहाने के लिए पानी गरम करने के लिए प्रयोग किया जाता है, “महटली” जो खुले मुंह का बड़ा बर्तन होता है जो मधानी से दही मथता है, “हांडु” जो छोटा होता है और साग या दाल बनाता है, इसके अलावा, अनाज या अन्य सामग्री रखने के लिए बड़े खुले बर्तन बनाए जाते हैं।
तम्बाकू पीने के लिए गोल आकार का ‘हुक्का’ भी बनाया जाता है, जिसे ‘झजरी’ भी कहते हैं। हुक्के में तम्बाकू और आग रखने के लिए “चिलमें” बनाई जाती हैं। मिट्टी का दीया भी बनाया जाता है। पैरों को रगड़ने और साफ करने के लिए भी छोटा, चपटा “झावा” बनाया जाता है। सभी बर्तनों को ढकने के लिए ‘मल्ली’ भी बनाए जाते हैं। “कुज्जु”, वेदी में कलश आदि रखने के लिए घड़े के आकार के छोटे बर्तन हैं। प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग नामों से कई अन्य बर्तन बनाए जाते हैं। मिट्टी से खिलौने और मूर्तियां भी बनाई जाती हैं ।
पिटक बनाने की कला
यह संबंधित कला पहाड़ों में बहुत लोकप्रिय है क्योंकि यह किसानों के दैनिक उपयोग की बहुत सारी वस्तुओं को बनाता है। बांस इस कला में लगभग सभी वस्तुओं के निर्माण में प्रयोग किया जाता है। हिमाचल में पतला, मोटा, बीच में खोल वाला और बिना खोल वाला बांस की कई किस्में पाई जाती हैं। यह सभी प्रकार का बांस काटकर, दराटी या दराटु से छोटे-छोटे पतले टुकड़े बनाकर काम करता है। इसकी बारीक टहनियों को काटे बिना भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
हिमाचल प्रदेश के मध्य और ऊपरी हिस्सों में इससे बनाया जाने वाला प्रसिद्ध बर्तन “किल्टा” या “घीरटा” है। यह नागल या तुंग बांस से बनाया जाता है। शंकु आकार की यह लम्बी टोकरी बर्तनों में पानी ढोने, खेतों से फसल लाने, खेतों में खाद डालने और जंगल से घास आदि लाने के लिए प्रयोग में लाई जाती है। किल्टा पीठ पर उठाया जाता है, रस्सा डालकर दोनों कंधों से कसा जा सकता है। इसका प्रयोग बगीचों से फल ढोने में भी किया जाता है।
टोकरी निम्नलिखित क्षेत्रों में घास लाने, खेत में खाद फेंकने, खेतों से उपज लाने और घराट या मशीन से आटा लाने के लिए प्रयोग की जाती है। विवाह या यज्ञ के दौरान चावल खाने वालों को बांटने के लिए बारीक रेशों वाली टोकरी बनाई जाती है, जिसे “छड़ोहलु” कहते हैं. इस टोकरी को दोनों ओर से गोबर से लीप लिया जाता है और सुखाया जाता है ताकि कोई छेद न रहे और कोई चीज इससे गिरे या रिसे नहीं। गोबर इसे नहीं लीपता। यह एक ऐसा ही गोलाकार बर्तन है जिसे बनाने पर गोबर से लीप कर रखा जाता है। विभिन्न वस्तुओं को धूप में सुखाने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है। शादी या किसी अन्य उत्सव के दौरान चावल या दाल धोने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन धोते समय पानी से निकलने के लिए इसे गोबर से नहीं लीपा जाता।
इसके अलावा, अनाज जमा करने के लिए इस्तेमाल होने वाले अन्य उपकरणों में से एक है ‘पेडू’ या ‘पेछली’, घराट में अनाज डालने के लिए ओड़नी, ‘छाबी’ या ‘छावड़ी’, जो चुल्हे से चपातियां निकालकर रखने के काम आती है, ‘करंडी’ या ‘कारडू’, जिसे पकड़ने के लिए डंडी या ढकना लगा होता है और अनाज डालने के काम आता है, ‘सुप’ या ‘सुपली’, जिनमें डालकर अनाज साफ किया जाता है, आदि इसी प्रकार की हस्तकला से पशुओं और बैलों के मुंह को बंद करने के लिए ‘छिकड़े’ या ‘छबेड़े’ भी बनाए जाते हैं ताकि वे फसल नहीं खाते। इस काम को भी करने वाले लोगों को ‘रेहड़ा’ या ‘डुमणे’ कहा जाता है, जो एक विशिष्ट जाति से आते हैं।
इस हस्तकला से रस्से, रस्सियां और अन्य कई उत्पाद बनाए जाते हैं। कुछ महीने पानी में दबाए रखने के बाद, “ब्यूहल वृक्ष” की बारीक टहनियों को पछाड़कर धोया जाता है, जिससे इसका छिलका और लकड़ी अलग हो जाते हैं। छिलके से “सेल” निकलता है, जिसे बाटकर रस्से बनाए जाते हैं इनकी फसलों को तैयार करने और पकने पर उनको पानी में दबाए रखने के बाद भी उनका सेल निकाला जाता है। रस्से, रस्सियां पशुओं को बांधने के लिए भी उपयोगी हैं, साथ ही घास और फसल के बोझ को बांधने के लिए भी उपयोगी हैं। इनसे भी चारपाइयां बनाई जाती हैं। घास को ढोने के लिए भी छिकियां बनाई जाती हैं।
कठोर कार्य और कला
हिमाचल प्रदेश की कला में लकड़ी के मकान, मंदिर और अन्य सामग्री बनाना और कलात्मक ढंग से सजाना एक विशिष्ट पहलू रहा है। यहाँ लकड़ी के मंदिरों, राजाओं के महलों और साधारण घरों में लकड़ी का उपयोग और उसमें की गई चित्रकारी इसकी पुष्टि करते हैं। सारे चित्र हाथ से बनाए गए हैं। घरों में लकड़ी से कई प्रकार का फर्नीचर बनाया जाता है। इसमें दैनिक प्रयोग के बर्तन भी बनाए जाते हैं। मुख्य बर्तन हैं ‘पुरातड़ा’, जिसमें आटा गुंथा जाता है, ‘कड़छी’, अनाज डालने का ‘पेडू’ और अन्य। चाय मिलाने के लिए “डांगबो” और पानी ढोने के लिए बर्तन भी किन्नौर में लकड़ी से बनाए जाते रहे हैं। इससे लकड़ी के खिलौने, सजावटदार लाठियां और घर सजाने के लिए चित्रकारी किया हुआ सामान भी बनाए जाते हैं। शिमला (लक्कड़ बाजार), चम्बा और कुल्लू इस तरह का सामान बनाने के प्रमुख स्थान हैं। मैं किसानों के लिए लकड़ी के हल, जुंगड़े बनाता हूँ। लकड़ी का काम करने वालों को “तरखान” कहा जाता है, हालांकि शेष जातियों के लोग भी इसे नहीं करते हैं। लेकिन तरखानों में यह पुराना काम है।
धातु कार्य और कला
यह आश्चर्यजनक है कि पहाड़ों में, जहां लकड़ी और पत्थर की अधिकता है, धातु कला में अधिक महत्वपूर्ण कलात्मक कार्य हुआ है. इसका उदाहरण मंदिरों में सुरक्षित मूर्तियां और राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में आम लोगों का आभूषणों से प्रेम है। हिमाचल प्रदेश के कई खड्डों के रेत से अभी भी लोग थोड़ा या अधिक सोना चांदी निकालते हैं, जो शायद पहले अधिक निकलता था। शायद यही इस कला का विकास करने का मुख्य कारण था। यह लेखन का विषय नहीं है, इसलिए बस इतना लिखना पर्याप्त है कि पहाड़ी लगे ने लकड़ी और पत्थर की भांति धातुओं से सामान बनाने में भी बहुत कुशल था। किन्नौर के दूरस्थ इलाकों में भी सुनार गहने बनाते हैं।
सोने और चांदी की वस्तुओं को सुनार, पीतल और लोहे से बनाए गए बर्तन को “ठठेश” और कृषि संबंधी लोहे की वस्तुओं को “लोहार” कहा जाता है। सुनार का सबसे बड़ा काम स्त्रियों के लिए सोने और चांदी के गहने बनाना है, साथ ही लम्बे या लंबे समय की छोटी-छोटी मूर्तियां भी बनाना है। किन्नौर और लाहौल-स्थिति में चाय बनाकर मिलने के बर्तन ‘डांगबो’ का विशेष महत्व है. ये लकड़ी से बनाए जाते हैं, लेकिन बाहर से चांदी की कमल और अन्य कलाकृतियां जड़ कर सजाए जाते हैं। इसके अलावा, कुछ धातुओं को मिलाकर कप बनाए जाते हैं, जिनका माना जाता है कि जादुई महत्व है। मुख्यतौर पर लोहे के तवे काइयां और बाल्टियां ‘उठियारे’ द्वारा बनाई जाती हैं। लोहार किसानों के लिए प्रयोग की जाने वाली कई चीजें तैयार करते हैं, जैसे ‘दराती’ जो घास काटते हैं, ‘खुरपा’, ‘किलणी’ या ‘कुदाली’ जो निंदाई और खुदाई करते हैं, ‘झांव’ जो खुदाई करते हैं, ‘लुहालु’ जो हल में लगाकर जमीन जोतते हैं और अन्य प्रयोग की जाने वाली कई चीजें। स्थानीय लोग भी तम्बाकू पीने के लिए हुक्के, कांसे की पीतल की थालियां, धातुओं से बनाए गए बाद्य यंत्र जैसे ‘रणसिंगा’ और ‘कानल’ बनाते हैं। धीरे-धीरे व्यावसायिक गतिविधियों में बढ़ोत्तरी के कारण, पहले जाति विशेष के लोग ही काम करते थे।
कपड़े बनाना
हिमाचल प्रदेश में सूती और ऊनी कपड़े बनाने की कला भी बहुत प्राचीन है। हिमाचल प्रदेश के शाल को देखकर मुगल बादशाह शाहजहां की पत्नी बेगम मुमताज ने आश्चर्य व्यक्त किया कि क्या पहाड़ों में इतने अच्छे शाल बनाए जा सकते हैं और इस कला को प्रोत्साहित किया।
यह कला पहले हाथ से ही बनाई जाती थी, हालांकि आज यह मशीनीकरण हो गया है और आगे भी होगा। पुरुष रूई खरीदकर उसे तकली बनाते थे, स्त्रियां चरखे पर उसे कातती थीं और गांव में ‘जुलाहे’ या ‘बनूरे कपड़े बनाती थीं। अब भी गांवों में पुरुष तकली पर ऊन कातते हैं, और स्त्रियां चरखे या तकली दोनों पर कातती हैं, और ‘खड्डी’ (हथकरमा) चलाने वाले से शाल, दोहडू, गुमदे, चक्टु, खड़चा, खुड़शा और अन्य सामग्री बनाते हैं। यह सिर्फ स्थानीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए लोगों द्वारा किया जाता है। हथकरघे चलाने वाले लोग बनाए गए सामान भी बेचते हैं, लेकिन गाँव के लोग ऊन ही बेचते हैं अगर वे अन्य काम नहीं करते हैं। हिमाचल में गद्दी लोग भेड़-बकरियों को व्यापारिक तौर पर पालते हैं, लेकिन अधिकांश ग्रामीण अपनी ऊन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भेड़-बकरियों को गाय, बैल, भैंस या खच्चर घोड़ों के साथ पालते हैं।
हिमाचल प्रदेश में तीन प्रकार की ऊन मिलती है: पहला, ‘ब्यांगी’, जो किन्नौर क्षेत्र में पाया जाता है और 10 से 10 सेंटीमीटर तक लम्बा होता है; दूसरा, ‘इम्बु’, जो भेड़ से पहली बार काट लिया जाता है और 5 से 10 सेंटीमीटर तक लम्बा होता है; और तीसरा, ‘डेसर’, जो घर में रहने वाली भेड़ों से मिलता है और
ऊन से बनाए गए कपड़ों में सादे, लकीरों वाले (चारखाना), कई रंगों वाले (सलाक) और दोहरे काले (कामली) चुराह के पट्टु और पट्टी, भरमौर के गद्दियों के कम्बल और काली और सफेद धारी वाले चम्बा शामिल हैं। पांगी की फर्श पर बिछाने की बकरी के बालों की धोवी, बकरी के बालों से बने बिछाने के खड़चे, चुक्टु, चुग्दन आदि हैं। किन्नौर भी रंगबिरंगी धारियों वाले दोहडू और मफलर बनाता है। कुल्लू के शाल, कोट और पट्टु प्रसिद्ध हैं।
बुशैहरी टोपी या किन्नौरी विश्व प्रसिद्ध है। इसके अलावा, ‘पोलें’, ‘जोम्बा’ और ‘पिच्चा’ नामक ऊन के जूते भी बनाए जाते हैं। साथ ही, पहाड़ी लड़कियां और औरतें कढ़ाई भी करती हैं, जिसका प्रभाव रूमालों, सिरहानों, (तकिए) दियाओं और चादरों या मेजपोशों और अन्य घरेलू कपड़ों पर दिखाई देता है।
चम्बा का रूमाल कढ़ाई का ही नहीं, चित्रकारी का भी अद्भुत उदाहरण है यह प्रायः सजावट में उपयोग किए जाते हैं। दिल्ली दरबार तक प्रदेश की हस्तकला का बोलबाला था। प्रदेश में विशेषकर ऊनी तथा गर्म कपड़े महत्वपूर्ण हैं। प्रदेश के ठंडे क्षेत्रों में लोग खुद गर्म कपड़े बनाते हैं। प्रदेश सरकार ने कुल्लू शाल और चम्बा रूमाल, जो सदियों पुरानी धरोहर हैं, को पेटेंट करवा दिया है, ताकि उनकी कला की गुणवत्ता पर कोई असर न पड़े।