हिमाचल प्रदेश लोकायुक्त
हिमाचल प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था: केन्द्रीय संसद ने 1985 ई. में प्रशासनिक अधिकरण अधिनियम, 1985 पारित किया, जिसके प्रावधानों के अनुसार, केन्द्रीय सरकारों की मांग पर और संबंधित प्रातों में प्रांतीय प्रशासनिक अधिकरणों को स्थापित किया जा सकता है. संविधान की धारा 323 (अ) के अनुरूप।
1 सितंबर 1986 को हिमाचल प्रदेश में प्रशासनिक अधिकरण की स्थापना हुई, जिसका पहला अध्यक्ष ठाकुर हीरा सिंह था. प्रदेश सरकारों और सरकार के स्वामित्व और नियंत्रण में निगमों, अधिकरणों और अन्य संस्थाओं में कार्यरत कर्मचारियों और अधिकारियों की सेवा संबंधी विवादों को सुनकर उनका निर्णय लेना प्रशासनिक अधिकरण का काम है. अब उच्च न्यायालय या किसी अन्य न्यायालय में ऐसे सेवा विवाद नहीं दायर किए जा सकते. प्रशासनिक अधिकरण के फैसले को 90 दिन के भीतर उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है. प्रत्येक पीठ में प्रशासनिक और न्यायिक सदस्य होंगे.
राष्ट्रपति, उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायधीश की मन्त्रणा से प्रान्तीय स्तर पर गठित कमेटी की सिफारिश से अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्यों को पांच वर्ष के लिए नियुक्त करता है. पुनर्नियुक्ति पांच वर्ष के बाद और पांच वर्ष तक की जा सकती है जब तक आयु सीमा पूरी नहीं हो जाती. सदस्यों की सेवानिवृत्ति की आयु 62 वर्ष है, जबकि अध्यक्ष और उपाध्यक्ष 65 वर्ष की आयु होती है.
प्रदेश प्रशासनिक अधिकरण को 2009 में प्रदेश सरकार ने समाप्त कर दिया था, लेकिन 2012 में सत्ता परिवर्तन के साथ ही नई कांग्रेस (ई) सरकार ने इसे फिर से शुरू किया.
हिमाचल प्रदेश लोकायुक्त:-
हिमाचल प्रदेश सरकार ने 17 अगस्त 1983 को हिमाचल प्रदेश लोकायुक्त अधिनियम, 1983 पारित करके लोकायुक्त दें पद का गठन किया. हिमाचल प्रदेश का प्रथम लोकायुक्त श्री टी. वी. आर. टाटाचा, सुप्रीम कोर्ट के सेनानिवृत न्यायधीश, नियुक्त हुआ. लोकायुक्त, मुख्य मंत्री सहित मन्त्री मण्डल के सदस्यों और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच कर सकता है. सुप्रीम कोर्ट के सेनानिवृत जज जस्टिस आर. बी. मिश्रा भी थे, जो जस्टिस टाटाचारी के बाद लोकायुक्त नियुक्त हुए. हिमाचल प्रदेश लोकायुक्त एक्ट में 2009 में संशोधन किया गया था, फिर 2013 में एक और संशोधन किया गया था. नवीनतम संशोधन के अनुसार, हिमाचल लोकायुक्त को सदसीय बनाया गया है और इसकी शक्तियां बढ़ी हैं.
हिमाचल प्रदेश राज्य लोक सेवा आयोग:
हिमाचल प्रदेश प्रशासनिक सेवा, हिमाचल प्रदेश न्यायिक सेवा, हिमाचल प्रदेश पुलिस सेवा और अन्य प्रांतीय सेवाएं पूर्ण राज्य की स्थापना के बाद बनाई गईं. भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा भी शामिल हैं, लेकिन संघ लोक सेवा आयोग ही उनका चयन करता है. पूर्ण राज्य बनने से पहले, संघ लोक सेवा आयोग ही हिमाचल प्रदेश की श्रेणी-1 और श्रेणी-2 वरिष्ट सेवाओं में भर्ती करता था. परन्तु पूर्ण राज्य बनने पर प्रांतीय सेवाओं में भर्ती के लिए प्रांतीय लोक सेवा आयोग का गठन आवश्यक था. इसलिए 8 अप्रैल 1971 को राज्यपाल ने एक अतिरिक्त अधिसूचना जारी कर प्रदेश लोक सेवा आयोग का गठन किया. सेनानिवृत लेफ्टीनेंट जनरल के. एस. कटोच ने 8 अप्रैल, 1971 को प्रदेश लोक सेवा आयोग का पहला अध्यक्ष बनाया, एक अन्य अधिसूचना द्वारा.
लोक सेवा आयोग की जिम्मेदारी पैन्शन, छुट्टी, बदली, पदोन्नती और भर्ती के नियमों को बनाने में परामर्श देना है और उम्मीदवारों को लिखित प्रतियोगी परीक्षा या मौखिक साक्षात्कार द्वारा उन सेवाओं/आसामियों के लिये चुनना है जो सरकार उसके क्षेत्राधिकार में देती है. इसके अलावा, सरकार को आयोग से सलाह भी लेनी होती है जब राज्यपाल या राष्ट्रपति अनुशासन और सजा के मामलों पर नियुक्ति करते हैं.
गांव से राज्य तक प्रशासन:
प्रदेश को 12 जिलों, 47 उपमंडलों, 77 तहसीलों और 35 उप-तहसीलों में विभाजित किया गया है। आगे कानून और पटवार सर्कल प्रत्येक तहसील और उप-तहसील में हैं. तहसील में तहसीलदार नामक अधिकारी, उप-तहसील में नायब तहसीलदार और प्रत्येक पटवार सर्कल में पटवारी नियुक्त किए जाते हैं. हिमाचल प्रदर्श प्रशासनिक सेवा के अधिकारी प्रत्येक उपमंडल में उपमंडलाधिकारी हैं. भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 ने नायब तहसीलदार और तहसीलदार को कार्यकारी दंडाधिकारी की शक्तियां दी हैं। और उप मण्डलाधिकारी को उप मण्डल दण्डाधिकारी की शक्तियां होती हैं, और जिलाधीश, जो भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी है, को जिला दण्डाधिकारी की शक्तियां होती हैं. इन क्षेत्रों में कानून-व्यवस्था कायम रखने के लिए, जिसमें पुलिस उनकी मदद करती है, इन्हें ये शक्तियां दी जाती हैं. हिमाचल प्रदेश भू-राजस्व अधिनियम, 1954 में इन अधिकारियों को सहायक समाहर्ता द्वितीय श्रेणी, तहसीलदार को सहायक समाहर्ता प्रथम श्रेणी और उप मण्डलाधिकारी को समाहर्ता की शक्तियां दी गई हैं। जिला समाहर्ता जिलाधिकारी का पद है. ये अधिकारी जमीन सुधारों को लागू करने, विवादों को हल करने और समय-समय पर जमीन संबंधी रिकार्ड बनाने और पुनरावृत्त करने के लिए इन शक्तियों का प्रयोग करते हैं.
“प्रशासनिक ढांचा”