“हिमाचल में लोकप्रिय जन आंदोलन”
9 मार्च, 1846 की संधि ने हिमाचल प्रदेश का अधिकांश भाग सिक्खों से छूटकर अंग्रेजी सरकार के अधीन कर दिया, जिससे पहाड़ी रियासतों पर अंग्रेजों का अधिकार हुआ. अब पहाड़ी रियासतों के राजा अंग्रेजों का संरक्षण और उनके अधीन थे, इसलिए वे आपस में लड़ नहीं सकते थे. अंग्रेजों का अर्थ था अपने कर, कर राशि और बेगार आदि. अंग्रेजों ने नूरपुर का राजा जसवंत सिंह को 5000 रुपये प्रति वर्ष देकर अपने हाथ में ले लिया. राम सिंह, वहां के पूर्व प्रधानमंत्री श्याम सिंह का पुत्र, इसे सहन नहीं कर सका. उसने गुप्त रूप से 1848 के मध्य में नूरपुर के पठानिया और कांगड़ा के कटोच नवयुवकों की एक सेना बनाई. 1848 की एक रात, जब दूसरा अंग्रेज-सिक्ख युद्ध शुरू हुआ, राम सिंह ने आक्रमण करके अंग्रेजी सेना को भगा दिया और नूरपुर का झण्डा लहराया. 1848 में, सिखों ने पठानकोट पर हमला किया. अंग्रेजों की अधिकांश सेना पठानकोट चली गई, लेकिन कांगड़ा में कुछ सेना रह गई. कांगड़ा के राजा प्रमोद चंद ने उस सेना को भगाकर राज्य पर कब्जा कर लिया, लेकिन रामसिंह ने अपना साहस नहीं छोड़ा. उसने युवा सैनिकों को तैयार करके अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध शुरू किया, लेकिन विपरीत हालात ने उसे मैदान छोड़कर भागना पड़ा. बाद में, जब वह पहाड़ों पर लौट आया, अंग्रेजों के हाथों एक दोस्त द्रोही पहाड़ चन्द ने उसे पकड़ लिया. उसे अंग्रेजों ने काले पानी की सजा दी और फिर सिंगापुर भेजा गया. वजीर रामसिंह ने नूरपुर रियासत के इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिसने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष छेड़ कर स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजाया था.
पहाड़ी रियासतें भी 1857 के विद्रोह से प्रभावित हुईं। देश भर की घटनाओं की तरह, देशभक्तों ने अंग्रेजों का विरोध किया, लेकिन कई राजाओं ने विद्रोह को कुचलने के लिए उनका साथ दिया. नूरपुर के राजा राम सिंह पठानिया ने अंग्रेजों के खिलाफ पहली बार आवाज उठाई थी. उसी समय, राम सिंह की मृत्यु से कांगड़ा, जसवां और दतारपुर में भी आंदोलन फैल गया। अंग्रेजों ने विद्रोह को रोका.
1857 में हुए विद्रोह से रामपुर के राजा शमशेर सिंह ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह किया. उस समय उस सेना में अधिकांश गोरखा और राजपूत थे, और जतोग सूबेदार भीमसिंह की पलटन ने पहली बार विद्रोह किया. कुल्लू में सूबेदार और प्रताप सिंह ने विद्रोह किया, जिसके बाद दोनों को मौत की सजा सुनाई गई. प्रजामण्डलों का गठन स्वतंत्रता की लड़ाई को तेज करने के लिए हुआ था.
प्रजा मंडल आंदोलन तथा लुधियाना सम्मेलन 1939
1939 में लुधियाना में हुए अखिल भारतीय जन सम्मेलन में निर्णय लिया गया कि हिमाचल प्रदेश में प्रजामंडल बनाए जाएं. 13 जुलाई 1939 को भागमल सौहटा ने शिमला पहाड़ी रियासतों की एक सभा में 14 तदुपरांत सिरमौर, चम्बा, मंडी, बुशहर, सुन्दरनगर और अन्य स्थानों पर प्रजामंडल बनाए गए. 1939 में हिमालयन रियासती प्रजामंडल का गठन किया गया था ताकि इन प्रजामंडलों में समन्वय हो सके.
धामी गोलीबारी
16 जुलाई 1939 को भागमल सौहटा के नेतृत्व में धामी के लोगों ने राणाधामी को नोटिस देने का निर्णय लिया. उनकी प्रमुख मांगें थीं जन आंदोलनों पर से प्रतिबंध हटाना और करों को आधा करना. आंदोलनकारियों की बढ़ती भीड़ को देखकर राणा ने डर से गोली चलाने का आदेश दिया, जिससे कई लोग घायल हो गए और दो मर गए. पहाड़ी रियासत में दमनकारी नीति की यह विशिष्ट घटना राष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा हुई.
1939 ई. में कुनिहार (अर्को) में संघर्ष हुआ, जहाँ दमदेव ने अध्यक्षता की, प्रजामंडल कार्यकर्ताओं ने के राणा को एक मांगपत्र पेश किया. मांग पत्र में गिरफ्तार कार्यकर्ताओं की रिहाई और भूमि कर में 25 प्रतिशत की कमी की मांग की गई. कुनिहार के राणा ने इन मांगों को मान लिया.
पझौता आंदोलन
अंग्रेजों को द्वितीय विश्व युद्ध में सहायता देने के लिए सिरमौरी राजा को नए लोगों की जरूरत थी, इसलिए उसने हिंसा का प्रयोग करना शुरू कर दिया. पझौता क्षेत्र के किसानों ने एक किसान सभा बनाकर राजा का विरोध करना शुरू कर दिया और असहयोग आंदोलन शुरू कर दिया. राजा ने हिंसक नीति लागू की और विद्रोहियों को शांत कर दिया. मियां चू चू बस्ती राम, चेतराम वर्मा और वैद्य सूरत राम इस आंदोलन के प्रमुख नेता थे ।
सिरमौर प्रजामण्डल
सिरमौर प्रजामण्डल के प्रमुख नेता शिवानंद रमौल, चौधरी शेरजंग और डा. देवेन्द्र सिंह थे। डा. परमार सिरमौर में जिला और सत्र न्यायाधीश थे। डा. परमार को सिरमौरी राजा राजेन्द्र प्रकाश से मतभेद के कारण देश से बाहर निकाला गया. 1941 में उन्होंने पद छोड़ दिया और 1943–1946 में डा. परमार ने दिल्ली में सिरमौर एसोसिएशन बनाया.
चम्बा प्रजा मंडल
चम्बा प्रजा मंडल का उद्देश्य स्थानीय लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों को पुनःस्थापित करना था. महात्मा गांधी ने भी चम्बा आंदोलन को समर्थन दिया था.
कागडा आंदोलन
महात्मा गांधी ने कांगड़ा में सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन को सफल बनाया. इस क्षेत्र में मंगतराम खन्ना, कामरेड राम चन्द्रा, हेमराज सूद, परसराम, सरला शर्मा, पंडित अमर नाथ और ब्रह्मानंद प्रमुख क्रांतिकारी थे ।
बुशहर प्रजामंडल
1945 में बुशहर प्रजामंडल का पुनर्गठन हुआ था. इस बीच, बुशहर सुधार सम्मेलन, बुशहर प्रेम सभा, सेवक मंडल दिल्ली और अन्य संस्थाओं ने जन जागरण मैं में अपना सहयोग जारी रखा. बुशहर प्रजामंडल का नेतृत्व सत्यदेव बुशहरी ने किया था. मंडी कांफ्रेंस 8 मार्च 1946 से 10 मार्च 1946 तक हुई, जिसमें 48 प्रतिनिधियों ने भाग लिया. आजाद हिंद फौज के पूर्व सेनानी कर्नल जी. एस. ढिल्लों ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। इस सभा ने रियासतों में सभी लोगों को लोकतांत्रिक अधिकार देने का निर्णय लिया.
जनता के दबाव पर, ठियोग के ठाकुर ने 15 अगस्त 1947 को जनप्रतिनिधियों को राजसत्ता सौंप दी, सूरत सिंह प्रकाश के नेतृत्व में.
अस्थाई हिमाचल सरकार की स्थापना
26 जनवरी 1948 को हिमाचल प्रदेश राज्य क्षेत्रीय परिषद् की एक बैठक ने भविष्य की पहाड़ी राज्य की अस्थाई सरकार बनाने का निर्णय लिया. मुख्यमंत्री श्री शिवानंद रमोल (सिरमौर) चुने गए. प्रमुख सदस्यों में बिलासपुर के श्री सदाराम चंदेल, बुशैहर के श्री पदमदेव और सुकेत के श्री मुकंद लाल चुने गए. अतः 1948 में उन्होंने मिलकर एक संविधान बनाया, जो रियासतों को एक संघ के अधीन रखना चाहता था. लेकिन इसे कोई विशिष्ट मान्यता नहीं मिली.
सुकेत सत्याग्रह
8 फरवरी, 1948 को नेताओं और जनता की एक सभा में, राजाओं के असहयोगपूर्ण दृष्टिकोण को देखते हुए, रियासतों के विलयीकरण का निर्णय लिया गया. सुकेत रियासत को पहले लक्ष्य बनाया गया था. उस समय सुकेत का राजा लक्ष्मण सिंह था. सत्याग्रहियों का जत्था पद्मदेव की अध्यक्षता में सुंदर नगर के लिए चला गया; राजा को एक पत्र भेजा गया, लेकिन कोई उत्तर नहीं आया. राजा ने विलय पत्र पर केंद्र सरकार के आदेश और जनता के दबाव पर हस्ताक्षर किए. अंत में, हर नरेश ने कर विलय पत्रों पर हस्ताक्षर किए और 15 अप्रैल 1948 को हिमाचल का जन्म हुआ.
26 से 28 जनवरी 1948 को सोलन में पहाड़ी रियासतों के शासकों और प्रजामण्डल के प्रतिनिधियों के सम्मेलन में, घाट के राणा र्गा सिंह की अध्यक्षता में, हिमाचल प्रदेश को नाम देने का निर्णय लिया गया.
15 अप्रैल, 1549 ईस्वी को छोटी-छोटी रियासतों को एकत्र करके हिमाचल प्रदेश बनाया गया. इससे पहले, वल्लभ भाई पटेल ने 18 मार्च, 1948 ईस्वी को लिखा था कि इस क्षेत्र का संविधान किसी भी अन्य राज्य के समान होना चाहिए, जब संसाधनों का पर्याप्त विकास हो जाएगा और प्रशासन परिपक्व हो जाएगा. केंद्र सरकार ने हिमाचल प्रदेश को गठन करते समय एन. सी. मेहता को प्रदेश का प्रथम चीफ कमीशनर तथा श्री ईस्वी पी. पेंडरलमून को प्रथम डिप्टी कमीशनर नियुक्त किया. इसका अंतिम लक्ष्य है कि इस राज्य को एक स्वतंत्र राज्य बनने का अवसर दिया जाए. उस समय राज्य 27,018 वर्ग किलोमीटर का था. भाखड़ा बांध के निर्माण से पहले बिलासपुर को एक अलग इकाई का दर्जा दिया गया था. परन्तु बिलासपुर के राजा आनन्द चन्द को मुख्य कमीशनर बनाकर इसका नियंत्रण उसी ने लिया था. शेष हिमाचल प्रदेश में 9,35,000 लोग रहते थे. प्रमुख कमीशनर ने राज्य को चार जिलों में बाँट दिया, जो छोटी-बड़ी रियासतों को शामिल करते थे. प्रान्त में 26 तहसीलों और उप-तहसीलों थे, और प्रत्येक जिले को एक डिप्टी कमीशनर था.
1948 में, चीफ कमीशनर के परामर्श से एक सलाहकार परिषद् का गठन किया गया था. मुख्य प्रशासक को वैधानिक और व्यवस्था संबंधी कार्यों में परामर्श देने के लिए स्थानीय योग्य लोगों को इस परामर्शदात्री कौंसिल में शामिल किया गया था. विधानसभा ही यह परामर्शदात्री संस्था थी. इस सलाहकार परिषद् में छह जनप्रतिनिधि थे: श्रीमति लीलावती, डॉ. यशवन्त सिंह परमार, अवतार चन्द मेहता, स्वामी पूर्णानन्द, श्री पद्मदेव और लाला शिवचरण. तीन अन्य सदस्य थे: राजा बघाट, दुर्गा सिंह, राजा मण्डी, जोगेंद्र सेन और राजा चम्बा. लेकिन परिषद् अपने अधिकारों से खुश नहीं थी. इसमें राजनैतिक क्षमता नहीं थी. नेताओं ने इसलिए पूरी जिम्मेदारी की मांग की. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता डॉ. यशवन्त सिंह परमार ने इस संघर्ष में प्रमुख नेता की भूमिका निभाई।
“संवैधानिक व प्रशासनिक इतिहास”