हिमाचल में शून्य बजट खेती

आज दुनिया भर में कृषि में निरंतर नए प्रयोग किए जा रहे हैं। जर्मन वैज्ञानिक डॉ. जस्टस फीहर वॉन लीविंग, जिन्हें दुनिया भर में उर्वरक उद्योग का पितामह कहा जाता है, ने बताया कि पौधों को नाइट्रोजन सहित अन्य सूक्ष्म तत्त्वों की बहुत जरूरत है।  इस वैज्ञानिक का मानना था कि जमीन कूड़ा है। इसमें कोई पोषक पदार्थ नहीं हैं। इन्हें बाहर से डालने से पैदावार दस गुना बढ़ जाएगी। लेकिन डा. लीविग ने शायद नहीं सोचा होगा कि बाहर से डालने वाली मात्रा प्रति हेक्टेयर 150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 75 किलोग्राम फास्फोरस और 150 किलोग्राम पोटाश होगी। लेकिन सेब की फसल में यह वास्तव में है। इस प्रक्रिया में 35 हजार एकड़ कृषि योग्य जमीन बंजर बनने लगी है। बांधों के पानी में भारी धातुओं की मात्रा बढ़ने से इसके सिंचाई उपयोग पर संदेह है।

हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी राज्य की 8,000 करोड़ रुपये की आर्थिकी फल-सब्जी पर निर्भर है, लेकिन यह उत्पादन रसायन से मुक्त नहीं है। कृषि अनुसंधान के अनुसार, 10 प्रतिशत से अधिक फल-सब्जियों के नमूनों में कई कीटनाशक-फफूंदनाशकों के अंश पाए गए हैं, जिनमें सेब, टमाटर और शिमला मिर्च शामिल हैं। प्रदेश में 2016 से 2017 के आंकड़ों के अनुसार, सरकारी आंकड़ों में हर वर्ष लगभग 515 मीट्रिक टन कीटनाशक-फफूंदनाशक का प्रयोग हुआ है; हालांकि, बहुत से गैर अनुमोदित रसायन बेरोक टोक से बिकते हैं, इसलिए यह आंकड़ा निश्चित रूप से 700-750 मीट्रिक टन तक बढ़ जाएगा। कीटनाशकों एवं उर्वरकों का अंधाधुंध प्रयोग ने जल, जमीन और पर्यावरण को प्रभावित किया है, साथ ही मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी खतरा पैदा हुआ है।

नीति योजनाकार, वैज्ञानिक और कृषि विकास के अधिकारियों ने कृषकों और बागवानों द्वारा रसायनों के अवैज्ञानिक छिड़काव की गंभीर स्थिति को नहीं समझा। नतीजतन, खेती उत्पादन में कीटनाशक, फफूंदनाशक और उर्वरक नहीं थे। लेकिन दुर्लभ हालात आने पर प्रकृति शायद अपने प्रश्नों का उत्तर स्वयं खोज लेती है। हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल आचार्य देवव्रत का आगमन शायद इन महत्वपूर्ण प्रश्नों का समाधान करने के लिए हुआ है। 2015 से, वह प्रदेश के हर कोने में ‘शून्य लागत प्राकृतिक खेती’ करके पहाड़ों की खेती को रसायन से मुक्त करने का प्रयास कर रहा है।

देश के इतिहास में यह पहली बार है कि किसी प्रदेश के महामहिम प्रदेश के दोनों विश्वविद्यालयों में इस खेती पद्धति पर प्रशिक्षण शिविर नहीं बनाए जाते, बल्कि तीन दिन तक स्वयं प्रशिक्षु की तरह रहते हैं। ‘शून्य लागत प्राकृतिक खेती’ की खोजकर्ता पद्मश्री सुभाष पालेकर हैं. उन्होंने लगभग ३० वर्षों तक इस कृषि प्रणाली का अध्ययन करके दिखाया कि ३० एकड़ भूमि पर एक भारतीय गऊ की उर्वरा शक्ति, इसी के मूत्र, गोबर और कुछ स्थानीय पेड़-पौधों को मिलाकर स्वस्थ पौधों का उत्पादन और संरक्षण किया जा सकता है।

यह भारतीय कृषि प्रणाली अच्छी है, सरल है, अनुकरणीय है, लाभदायक है और ऋणमुक्त है। देश भर में सफलतापूर्वक इस कृषि प्रणाली को अपनाने वाले ४० लाख किसानों का योगदान इसकी पुष्टि करता है। आचार्य देवव्रत निश्चित रूप से “शून्य लागत प्राकृतिक खेती” की प्रेरणा दी गई है अगर सुभाष पालेकर इसके निर्माता हैं। कृषि वैज्ञानिकों ने आज रसायन-आधारित कृषि शिक्षा को अपनाया और इसे अगली पीढ़ी को सिखा रहे हैं। शून्य खेती का लक्ष्य ऐसे वैज्ञानिकों और अनुसंधानकर्ताओं को आकर्षित नहीं करता।

उन्हें शून्य लागत खेती का विरोध है क्योंकि वे कहीं न कहीं लगता है कि उनके वर्षों की खोज और वैज्ञानिक क्षमता को भारतीय भाषा में और स्वदेशी कपड़े में चुनौती दी जा रही है. उनका विरोध तर्कसंगत और तथ्यात्मक नहीं है। समाज का एक समूह इस ज्ञान को अपना अधिकार मानता रहा है। अगली पीढ़ी को रसायनिक खेती बदलनी होगी। ‘शून्य लागत प्राकृतिक खेती’ पर प्रदर्शन और अनुसंधान क्षेत्रों को औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय और नौणी एवं कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर ने बनाया है।

यह कृषि विधि के लाभों, सरलता और सहजता के बारे में आम कृषकों को पता चलेगा. इसके अलावा, फसल उत्पादन और सरंक्षण के हर पहलू का वैज्ञानिक प्रभाव और मूल्यांकन भी मिलेगा। इससे वैज्ञानिक तथ्यों के साथ इस प्रक्रिया की विश्वसनीयता भी सिद्ध होगी। इस कृषि में मुख्य फसल की लागत का मूल्य अंत:मुख्य फसल से शुद्ध लाभ प्राप्त किया जाता है, जो पूर्ववर्ती फसलों के सह-फसल उत्पादन से निकाला जाता है। खेती के लिए बाजार से कोई भी संसाधन नहीं खरीदा जाता। “शून्य लागत प्राकृतिक खेती” किसानों की आय दोगुनी करने के साथ-साथ गांव की समृद्धि के लिए पहली सार्थक पहल है।

कृषि की इस कल्याणकारी विधा को पूरी तरह से राज्य में स्थापित करने के लिए अभी कुछ अतिरिक्त आर्थिक और नीतिगत प्रयासों की आवश्यकता होगी। छोटे से छोटे किसानों तक शून्य लागत खेती का प्रचार प्रसार होना चाहिए। जिससे समाज इस प्रक्रिया के प्रति जागरूक हो सके।

हिमाचल प्रदेश में कृषि का मतलब सिर्फ कृषि नहीं है; यह बागवानी, पशुपालन और वन प्रबंधन भी शामिल है। क्योंकि उनमें कृषि पर आधारित जनसंख्या अधिक है और उनमें छोटी-छोटी जोते हैं, लगभग सभी पर्वतीय क्षेत्रों की यही स्थिति होती है। मल्चिंग के लिए पत्ते, गोबर और गोमूत्र जैसे पशु उत्पादों पर जीरो बजट खेती पर निर्भर रहना पड़ता है। पशुधन कहा जाता है, यानी वह खेती से कमाई में एक महत्वपूर्ण अतिरिक्त आय जोड़ने वाला सहायक उद्यम है। यदि वन, कृषि और पशुपालन अनुकूल होंगे, तो कृषि भी सफल और फलदायी होगी। किसान दस्तकारी के लिए वनस्पति लेते हैं, जैसे पत्तल या ऊन बनाने के लिए टौर के पत्ते ।

भेड़-बकरी पालन के अनुकूल कांटेदार झाड़ियों वाले मिश्रित वन किसानों को एक अतिरिक्त फायदेमंद व्यापारिक उपकरण प्रदान करते हैं। साथ ही, ऐसे मिश्रित वन स्थानीय जल स्त्रोतों को बचाते हैं, जो लघु सिंचाई और पेयजल की आपूर्ति में सहायक होते हैं। पशुपालन, भेड़-बकरी पालन, दस्तकारी और वन उत्पादों से मिलकर पहाड़ी खेती एक इकाई बनती है। इसमें हर क्रिया एक-दूसरे से अन्योन्याश्रित रूप से जुड़ी हुई है। यही कारण है कि समग्र योजना बनाई जाए, जिसमें इन सभी गतिविधियों को साथ-साथ विकसित किया जाए, तो स्थायी सफलता मिल सकती है। इसके बारे में कुछ सुझाव निम्नलिखित हो सकते हैं:

  • जीरो बजट खेती के लिए चुने गए क्षेत्रों के लिए जलागम के आधार पर विकास योजना बनाई जाए; यह योजना इस तरह बनाई जाए कि जलागम के भीतर ही जीरो बजट खेती के लिए सभी आवश्यक सामग्री उपलब्ध हों।
  • जलागम में मिश्रित वनस्पतियों से वनभूमि भर दी जाए। फल, चारा, ईंधन, खाद, दस्तकारी और दवाई वाली वनस्पतियों को रोपण करें।
  • खरपतवारों को चरागाहों से बाहर निकालकर उन्नत घास लगाओ। वृक्षारोपण सिलिपेस्टोरल आधार पर होना चाहिए। इससे पशुपालन आसान और फायदेमंद होगा। बेसहारा पशुओं की समस्या भी कुछ हद तक हल होगी।
  • पहाड़ी क्षेत्रों में जल संरक्षण के लिए विशेष प्रयास करें। उत्तराखंड की दूधातोली कोशिश से कुछ सीखा जा सकता है।
  • क्षेत्रीय कृषि और बागवानी विभाग के कर्मचारियों को जीरो बजट खेती का विशेष प्रशिक्षण दिया जाए। प्रदर्शन क्षेत्रों का निर्माण होना चाहिए, जहां किसानों को नई कृषि प्रणाली की विशेषताओं को देखने का मौका मिलेगा। देखकर हर कोई कुछ सीख सकता है; किसान भी देखकर कुछ सीख सकते हैं।
  • पशुपालन विभाग में नस्ल सुधार कार्य को नई दिशा दी जाएगी। साहिवाल, सिंघी थारपारकर और अन्य पहाड़ी नस्लों की कृत्रिम गर्भाधान की व्यवस्था की जाए। यूरोपीय नस्लों को कम करना चाहिए। इन नस्लों के दूध में हिस्टीडीन नामक एमिनो एसिड होता है, जो पाचन के दौरान बीटाकेथोमॉर्फिन में बदल जाता है, जो स्वास्थ्य पर घातक होता है। नतीजतन, आस्ट्रेलिया जैसे देशों ने भारतीय नस्लों की डेयरियां बनाई हैं और उनका दूध दोगुनी मूल्य पर बेचा है। यूरोपीय नस्लों से 50 गुणा अधिक जीवाणु देशी गोबर और मूत्र में पाए जाते हैं। यूरोपीय नस्लों से 50 गुणा अधिक जीवाणु देशी गोबर और मूत्र में पाए जाते हैं।
  • मनरेगा का बजट इन कार्यों के लिए उपलब्ध विभागीय बजट में प्रयोग करके बहुत से काम किए जा सकते हैं।
  • स्वयंसेवी संस्थाएं जलागम विकास योजना बनाने और जागरूकता फैलाने जैसे कुछ काम कर सकती हैं, लेकिन इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि योजना पूरे जलागम की हो और जलागम को एक इकाई मानकर लागू हो। विभिन्न तकनीकी कारणों से पूर्व में जलागम विकास योजनाओं को लागू करने में कमी आई है, जिसमें वन भूमि को शामिल नहीं किया गया है। वनरोपण का लक्ष्य निजी जमीन पर वृक्षारोपण करके पूरा करना है। वनभूमि की उचित देखभाल के बिना जलागम विकास का कोई अर्थ नहीं है। यही कारण है कि जीरो बजट खेती के लिए हमें सभी संसाधनों का प्रबंधन करना होगा।
बागवानी (Horticulture)

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top