“हिमाचल के मंदिर”

हिमाचल के मंदिर

मंडी

 हणोगी माता, बाबा भूतनाथ, टारना माता, पंचबख्तर, त्रिलोकी नाथ, अर्द्धनारीश्वर, महामृत्युंज्य, भीमाकाली भियूली, सिद्ध गणपति, राममाधव, नैणा देवी रिवालसर, महामाया मंदिर सुंदरनगर, शिकारी माता, ममलेश्वर महादेव करसोग, कामाक्षा देवी, नौबाही माता सरकाघाट और पराशर मंदिर।

कुल्लु

रघुनाथ मंदिर सुल्तानपुर, बिजली महादेव, हिडिंबा मनाली, मनुमहाराज मनाली, वैष्णो देवी, विशेश्वर महादेव बजौरा, प्राचीन राम मंदिर, गुरुद्वारा मणिकर्ण, परशु राम मंदिर निरमंड तथा चैहणी कोठी बंजार शाहतलाई में बाबा बालक नाथ का मंदिर, बिलासपुर नैणा देवी, बोटू का शिव मंदिर

बिलासपुर

तपस्यास्थल मंदिर, लक्ष्मी नारायण बिलासपुर और गुरु का लाहौर टोबा

हमीरपुर

बाबा बालक नाथ दिवोट सिद्ध, राधाकृष्ण मंदिर, नर्वदेश्वर मंदिर सुजानपुर, लंबलू शनि मंदिर

ऊना

बाबा बड़भाग सिंह, चिंतपूर्णी माता मंदिर और बाबा डेरा रुद्रू जोगी पंगा

चंबा

भरमौर चौरासी में चंबा लक्ष्मी नारायण मंदिर समूह, खजियार में खम्बी नाग मंदिर इसमें लक्षणा माता, नर सिंह और शिवजी के मंदिर, शक्ति माता उत्तराड़ी के मंदिर और पांगी का मिंधल माता मंदिर शामिल हैं।

कांगडा

राक कट टैंपल मसरूर, कांगड़ा किला में जैन मंदिर, नूरपुर का ब्रजराज स्वामी मंदिर, भागसूनाथ मंदिर, बैजनाथ, चामुंडा, काठगढ़ का शिव मंदिर और ब्रजेश्वरी माता मंदिर।

शिमला

पब्बर घाटी में पांच पांडवों का मंदिर, हाटकोटी मंदिर, कालीबाड़ी, जाख, तारादेवी, संकटमोचन, भीमाकाली सराहन, जांगलिक देवता का मंदिर, विजटेश्वर महादेव का मंदिर और चौपाल ।

सोलन

सोलन में माता शूलिनी, अर्को किला, रामनगर का किला, नालागढ़ का किला और महल हैं ।

किन्नौर

रिब्बा का मंदिर, सांगला का कामरूकिला व मंदिर, सांगला में शिव मंदिर, कोठी देवी का मंदिर और सुंगरा में महेश्वर मंदिर

लाहुल-स्पीति

मुकुला माता उदयपुर, त्रिलोकी नाथ, गोंधला किला, की गौंपा, ताबो गौंपा, ढंकर गौंपा तथा ज्यूह गौंपा।

सिरमौर

बाला सुंदरी और पांवटा साहिब

हिमाचल प्रदेश के प्रसिद्ध मंदिरों

हिमाचल प्रदेश के प्रसिद्ध मंदिरों को प्रकृति ने संवारा है, लेकिन लोगों ने भी अद्भुत वास्तुकला की शैलियों में मंदिर बनाकर सुंदर हिमाचल को समृद्ध संस्कृति दी है। मंदिरों को भारत के विभिन्न स्थानों से प्राप्त वास्तुकला के मिश्रण से बनाया गया है, इसलिए इनके शिल्प को स्थानीय कहने में कोई संकोच नहीं होगा। हिमाचल प्रदेश की संस्कृति, कला और वास्तुशिल्प का मूल स्वरूप बाहरी आक्रमणों से बचने के कारण नष्ट नहीं हुआ है। यहां के प्राचीन मंदिर इस लक्ष्य की पुष्टि करते हैं। यहां बहुत से आर्य और अनार्य देवताओं के पूजन के बावजूद शिव और शक्ति मुख्य देव-देवी हैं। यह शिव की क्रीड़ास्थली है। किन्नौर जिले में कल्पा के सामने रलदंग पर्वत शिव का मूल स्थान माना जाता है, जहां कोने-कोने में दुर्गा या शक्तिवास रहते हैं। यहां के मंदिरों में विराजित देवी-देवता की आराधना करके लोग उनके आशीर्वाद की मांग करते हैं, वहीं प्रदेश की सुंदर वास्तुकला भी ध्यान आकर्षित करती है।

बिलासपुर का संमुखैश्वर मन्दिर: बिलासपुर में कार्तिक के लिए समर्पित यह मन्दिर 7वीं शताब्दी के पूर्व गुप्त काल का है। इस मन्दिर का प्रमुख देवता शिव है।

बिलासपुर का नयना देवी मन्दिर: यह प्रसिद्ध नयना देवी का मन्दिर समुद्रतल से 3,000 फुट की ऊंचाई पर है। यहां दुर्गा को नयना देवी कहा जाता है। मन्दिर से जुड़ा एक उपाख्यान कहता है कि भगवान शिव ने अपनी पत्नी के मृत शरीर के साथ ताण्डव नृत्य किया, जिसे पिता दक्ष ने बेइज्जत कर दिया था. भगवान विष्णु ने अपनी भारी गदा लेकर शिव का पीछा किया और उसके मृत शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके संसार और स्वर्ग को बचाया। सती ने इस जगह को “शक्ति पीठ” कहा जब उनकी आंखें इस पर गिरी। एक और कहानी कहती है कि इस पहाड़ी की चोटी पर राजा बीर चन्द के राज्य में एक सुंदर अहीर गाएं चरा रहा था। उसने देखा कि उसकी गाएं एक सफेद पत्थर पर दूध फेंक रही थीं। उसने राजा को बताया, और राजा ने वहाँ दुर्गा की मूर्ति पाई।

बिलासपुर स्थित रंगनाथ मंदिर: यह मन्दिर वास्तव में पुराने बिलासपुर कस्बे में था; यह कस्बे के सुंदर मन्दिरों में से एक था जो अब गोबिन्द सागर में डूब चुका है। तापमान की विभिन्नता, लगातार पानी और सिल्ट के प्रभाव से मन्दिर की सुंदर कुरेदित वास्तुकला और शिल्पकला खराब हो गई और बरबाद हो गई। निर्माण की शैली विशिष्ट थी। मन्दिर

बिलासपुर का गुगा-पीर मन्दिर: गुगा पीर का मन्दिर बिलासपुर जिले के घुमारवीं में है। यहाँ पर गायकों का एक समूह अभी भी गुगा की वीर गाथाओं का गायन करता है।

मारकण्डेय मन्दिर (बिलासपुर) बिलासपुर से लगभग बारह मील दूर है। यहाँ एक कहानी है कि महर्षि मारकण्डेय ने बहुत तपस्या की थी। एक पुरानी कहानी कहती है कि एक सुरंग मारकण्डेय गुफा और ब्यास गुफा को जोड़ती थी, जिससे दोनों भूमिगत रास्ते मिलते थे।

लक्षणा देवी मन्दिर (चम्बा) महिमासुर मर्दिनी को समर्पित है और गुप्त काल से जुड़ा है। स्थानीय भाषा में इस देवी को लाक्षणा देवी कहा जाता है, जिसे आम तौर पर भद्रकाली वैष्णवी महिषासुरमर्दिनी, चण्डी, चण्डीका और चामुण्डा के नाम से भी जाना जाता है। यह कश्मीर और गन्धार की वास्तुकला के लिए प्रसिद्धि और समरूपता दिखाना है और पश्चिमोत्तर के प्राचीन स्मारकों की विशिष्टता से प्रभावित है। इस मन्दिर की विलक्षणता यह है कि इसमें लक्षणा देवी की मूर्ति है, जिसका उल्लेख मारकण्डेय पुराण में है।

चम्बा में स्थित लक्ष्मीनारायण मंदिर: लक्ष्मीनारायण मन्दिर एक समूह के कई मन्दिरों से घिरा है। ये मंदिर भगवान शिव और विष्णु को समर्पित है। उत्तरी क्षेत्र में चम्बा में स्थित लक्ष्मीनारायण मन्दिर प्रमुख है। ये एक महत्वपूर्ण वास्तुकला केंद्र है। इस मन्दिर को साहिल वर्मन के राजकाल से बनाया गया है। चम्बा के महान इतिहास को ये मन्दिर बताते हैं।

शक्ति देवी (चम्बा) मंदिर: यह प्रसिद्ध मन्दिर लक्षणा देवी भरमौर का है। यह मन्दिर कार्तिक, इन्द्र और ब्रह्मा से संबंधित है। मन्दिर उत्तरी चम्बा जिले के पिऊ में है। पहाड़ों में बहुत पवित्र स्थानों में से एक छतराड़ी मन्दिर है, जिसकी तुलना कांगड़ा के भवाबी मन्दिर और भरमौर के लक्षणा देवी मन्दिर से की जा सकती है। भरमौर वंश के प्राचीन पूर्वजों ने बहुत पुराने मूशान राज्य में शक्ति देवी मन्दिर की खोज की। यह मन्दिर कुशल शिल्पकार मेरू वर्मन गुगा का अंतिम काम था, जैसा कि एक और कहानी बताती है।

चम्बा में गौरी शंकर मंदिर: चम्बा में शिव को समर्पित छह मन्दिरों में से एक है लक्ष्मी नारायण मन्दिर। शिव की कांसे की मूर्ति पार्वती के साथ दिखाई देती है। शिव को यहां चतुर्भुज में चित्रित किया गया है, जिसकी बाईं भुजा पार्वती के दाएं कन्धे पर है। दूसरे दाएं पैर पर कुछ है। मन्दिर के सामने, दो नदी देवियां, ‘गंगा’ और ‘यमुना’, द्विभंगा की तरह खड़ी हैं और अपने हाथों में एक सुंदर बर्तन पानी रखी हुई हैं।

भरमौर (चम्बा) में चौरासी मंदिर है: भरमौर 84 मन्दिरों की भूमि है। भरमौर में प्राचीन मंदिरों को छोड़कर एक वर्ग कम्पाउण्ड में 84 छोटे-छोटे मन्दिर हैं। यह मन्दिर लगभग 700 ई० में मेरू वर्मन के राज्य में बनाए गए हैं, लेकिन यह बहुत संदेहात्मक है कि ये वर्तमान भवन इतने पुराने समय के हो सकते हैं। भरमौर में गणेश, मणिमहेश, नारसिंह और लक्षणा देवी के प्रमुख मंदिर हैं। 9वीं और 10वीं शताब्दी में ये चौरासी मन्दिर बनाए गए थे।

भरमौर (चम्बा) का नरसिंह मन्दिर: यह मंदिर श्रीकृष्ण के अवतार नरसिंह को समर्पित है। इसका डिजाइन मणीमहेश मन्दिर की तरह है। मन्दिर की भयानक आकार की मूर्ति डरावनी बड़े-बड़े जबड़ों वाली है। मन्दिर के देवता का सिर शेर का है, जबकि उसका शरीर मनुष्य है, और सिर पर ताज के अलावा दो भुजाएं हैं। मन्दिर में लिखा गया है कि मेरू वर्मन ने भी इसका निर्माण किया था।

चम्बा में स्थित खाजी नाग मंदिर: चम्बा जिला का खजियार आजकल मिनी स्विटजरलैंड के नाम से जाना जाता है, लेकिन यह नाम वास्तव में इसी मन्दिर से लिया गया है। यह मन्दिर सुंदर है। खजियार झील के पास एक प्राचीन मन्दिर खाजी नाग को समर्पित है। Traditons कहते हैं कि बाटलु (नर्स) ने यह मन्दिर बनाया था, जो लगभग 1642 ई० में राजा पृथ्वी सिंह को बचाया था।

चम्बा महल के पास बंसी गोपाल मन्दिर (चम्बा)  1595 में, राजा बलगद ने इस मन्दिर के बारे में एक तांबे की प्लेट पर लिखा था। यह मन्दिर भगवान कृष्ण (जिनके हाथों में बांसुरी है) को समर्पित है। मन्दिर के प्रवेश द्वार पर एक वस्तु (बर्तन) को हाथ में लिए हुए एक खड़ी मुद्रा में गंगा और यमुना को दिखाया गया है।

हरि राय मन्दिर (चम्बा) चौगान के सामने विष्णु मंदिर है, जिसे लगभग 11 वीं शताब्दी में शिखर शैली में बनाया गया था। सलाकर वर्मन ने कहा जाता है कि इसे बनाया था। मन्दिर का प्रमुख पूजनीय देवता वैकुण्ठ है, जो विष्णु की तरह है और तीन चेहरे रखता है: मनुष्य, सुअर और शेर।

चम्बा में स्थित नारायण मंदिर: 1720 में राजा उदयसिंह की मृत्यु के बाद यह चम्बा से 5 किमी. नीचे बनाया गया था। संगमरमर की स्थापना इस मन्दिर में रहने वाले देवता नारायण की है। यहां कहा जाता है कि राजा उदय सिंह और उसके भाई लच्छण सिंह की हत्या हुई थी, जहां अब दो अन्य संगमरमर की मूर्तियां हैं। मन्दिर के पास एक सब अथवा सती पिलर है, जिस पर राजा चार रानियों और आठ महिला नौकरों के साथ कुरेदा गया है; राजा की मृत्यु पर वे सती हो गए।

मणिमहेश मन्दिर (चम्बा): यह शिखर मंदिर बहुत प्राचीन और सुंदर है। यहां लक्ष्मी को महिषासुरमर्दिनी कहा गया है, जो दानव भैंसे को मार डाला था। राजा मेरू वर्मन के कुशल कारीगर गुगा ने उनकी पीतल की मूर्ति बनाई है।

चामुण्डा देवी (चम्बा) का मंदिर: चम्बा पहाड़ी की चोटी पर स्थित यह मन्दिर है। यह सुरक्षित लकड़ी की सुंदर नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है। इस पर देवी महिषासुरमर्दिनी, शिव, विष्णु और गणेश को कुरेदा गया है। राजा उमेद सिंह ने इसे 1754 में बनाया था।

त्रिलोचन महादेव (चम्बा) मंदिर: यह मन्दिर चम्बा से भरमौर की प्राचीन सड़क के स्थान पर स्थित है, जिसे गम कहा जाता है। मेरू वर्मन के शासनकाल में, मुख्य आराध्य देवों की बैठक ‘गम’ में होती थी। गम का प्रमुख देवता शिव था, जिसे चम्बा में मिले शिलालेखों का समर्थन मिला।

चिन्तपूर्णी (ऊना) में चिन्तपूर्णी देवी मंदिर: यह जगह ऊना से 33 किलोमीटर, धर्मशाला-होशियारपुर मार्ग पर धर्मशाला से 80 किलोमीटर, भरवाई कस्बे से 3 किलोमीटर और समुद्र तल से 976 मीटर पर है, जहां सती के चरण गिरे थे। इस मंदिर को चरणों को आराध्य मानकर बनाया गया है। यहां माता की प्रतिमा छिन्न-मस्तिका के रूप में पूजी जाती है, जिसमें पिंडी में चिन्हित चरण हैं।

सुजानपुर टीहरा (हमीरपुर) में नवोदेश्वर मंदिर: यह हमीरपुर से 25 किलोमीटर पर है और समुद्र तल से 850 मीटर ऊँचा है। सन् 1802 में महाराजा संसारचन्द्र की रानी प्रसन्नी देवी ने इस मंदिर की स्थापना की। इसका डिजाइन राजस्थानी है। पहाड़ी कला में बनाए गए भित्ति चित्र अलग हैं। इस मंदिर में भगवान शिव को समर्पित बहुत से चित्र हैं, लेकिन राधा-कृष्ण के बारे में भी चित्र हैं।

दियोटसिद्ध (हमीरपुर) में बाबा बालकनाथ धाम: शिमला से बरठीं-शाहतलाई की दूरी 155 किमी है, हमीरपुर से 45 किमी है और समुद्र तट से ऊँचाई 870 मीटर है। आठवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच, सिद्ध बाबा बालकनाथ को सबसे बड़ी विभूति माना जा सकता है। लोककथाओं के अनुसार, बाबा बालकनाथ ने युगों से जन्म लिया है। सतयुग में यह स्कन्द था, त्रेता में कौल था और द्वापर में महाकौल था। बालयोगी महाकौल ने अपने दृढ़ निश्चय और तप से शंकर को देखा और सदा बालछवि में रहने का वर प्राप्त किया। बाबा का मूल स्थान मूलतः एक गुफा है। अब प्रवेश शिखर शैली का द्वार है। गुफा में शिव, राधा कृष्ण और अन्य देवताओं के मंदिर हैं। गुफा के नीचे सार्वजनिक पूजा स्थल है। डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर गिरि सम्प्रदाय के गुरुओं की समाधियां हैं।

जिला हमीरपुर में स्थित नरसिंह देव मन्दिर: सोलहसिंगी पर्वत श्रृंखला हमीरपुर और ऊना जिलों की पश्चिमी सीमा बनाती है। इस धार की तराई और शिखर पर कई ऐतिहासिक स्थानों के अलावा प्राचीन प्रसिद्ध मंदिर और सिद्ध हैं। इस पहाड़ी पर दो प्राचीन किले, चामुखा, राजनौण, ज्योली देवी, पिपलू आदि स्थित हैं। इस धार की विशेषता यह है कि इसके शिखर पर भी पानी बहता है और पूर्व की ओर बहुत सारा पानी बहता है। इसलिए लोग धार के शिखर तक बसे हुए हैं, लेकिन पश्चिम की तरफ पानी कम है, इसलिए लोग सिर्फ तराई में बसे हुए हैं, जबकि पूरी धार बंजर और सूखी है।

समुद्र तल से 1071 मीटर की ऊंचाई पर सोलहसिंगी धार के शिखर पर पिपलू नामक स्थान है। यह स्थान धनेटा-बंगाणा ऊना रोड़ पर धनेटा से 7 किलोमीटर बंगाणा की तरफ आर के शिखर पर है। यहां बहुत सारे गुज्जर रहते हैं। लेकिन कुछ लोग ब्राह्मणों और अन्य समुदायों से आते हैं। यह स्थान जिला ऊना में भगवान नरसिंह देव का प्राचीन मन्दिर है। इस मन्दिर को ऊना और हमीरपुर दोनों में बहुत सम्मान मिलता है।

लंबे समय से इस जगह का नाम पिपलू पड़ा है। झगरोट में एक सूखा प्राचीन पीपल का पेड़ था। यह वृक्ष लंबे समय से सूखा पड़ा था। माना जाता है कि १८वीं शताब्दी में उतरु नामक एक किसान महेड़ (अब हटली) में रहता था। उसने एक रात सपना देखा कि जंगल में एक विशिष्ट प्रकार की शिला है। उसे निकालकर झगरोट में सूखे पीपल के नीचे रख दो। उसने स्वप्न में भगवान नरसिंह देव को शिला के रूप में देखा। स्वप्न के अनुसार किसान जंगल में शिला खोजने निकला। उसने बहुत मेहनत करके स्वप्न में देखा गया स्थान पर शिला पाया। किसान ने सोचा कि अगरोट नहीं ले जाना चाहिए और इसे अपने घर में रखना चाहिए क्योंकि यह एक चमत्कारी शिला है। लोगों का मानना है कि उतरू अपने घर की ओर चलते समय आंखों की रोशनी चली जाती है, लेकिन जब वह झगरोटा की ओर चलता है तो रोशनी वापस आती है। उधर, कुछ लोगों का मानना है कि वह शिला लेकर घर पहुंचा तो अन्धा हो गया। उसने झगरोट की ओर मुंह करके शिला के सामने प्रार्थना की कि उससे गलती हो गई है। वह शिला को यहीं रखेगा जहां उसे सपनों में कहा था, अगर उसकी आंखों में रोशनी वापस आ जाएगी। इस तरह उसकी आंखें फिर से चमक उठीं। बाद में वह शिला को लेकर झगरोट में सूखे पीपल के वृक्ष के पास पहुंचा, जहां उसने शिला को रखा। शिला को स्थापित करने के कुछ दिनों में ही कई वर्षों से सूखे पीपल के वृक्ष पर फिर से पत्तियां निकलनी शुरू हुई, जो लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया। जब लोगों को पता चला, उस पीपल और शिला की लोकप्रियता बढ़ने लगी। आज भी, यह प्राचीन पीपल का वृक्ष और शिला वहीं पर खड़े हैं और लोगों में बहुत प्रिय हैं। वहां हजारों लोग पूजा करते हैं। इस शिला को नरसिंह देव नामक देवता के रूप में पूजा जाता है। इसलिए पीपल वृक्ष का महत्व बढ़ा है। झगरोट का नाम बदलकर पिपलू हुआ। मन्दिर को कुटलैहड़ के राजा ने बनाया, जिस स्थान पर विसाखी नामक एक व्यक्ति ने जमीन दी।

ज्वालामुखी श्री ज्वालाजी (कांगड़ा): धर्मशाला से 50 किमी, कांगड़ा से 34 किमी और समुद्र तल से 600 मीटर दूर है। यहां सती की जिह्वा गिरने से उसे आराध्य मानकर उसे ज्वाला के रूप में पूजा जाता है। देवी का कोई चित्र नहीं है। ज्याला का पूजन गर्भगृह के मध्य में एक कुण्ड में होता है। दीवारों में भी ज्योतियों का दर्शन होता है और उनका पूजन किया जाता है। मंदिर का सुंदर द्वार और स्वर्ण जल से मढ़ा हुआ गुम्बद अद्भुत हैं। राजा खड़क सिंह और महाराजा रणजीत सिंह दोनों ने इसे दिया है।

ब्रजेश्वरी देवी कांगड़ा कांगड़ा बाजार से 100 मीटर पैदल है, धर्मशाला से 15 किलोमीटर है और समुद्र तल से 2495 मीटर है। शक्तिपीठ, जहां सती का वक्ष गिरा था गर्भगृह में मां की सुंदर प्रतिमा पूजी जाती है। देवी की पिंडी की पूजा करने के लिए विशेष नियम हैं। लोहड़ी के अवसर पर हर वर्ष इस पिंडी पर मक्खन चढ़ाया जाता है। मान्यता है कि महिषासुर का वध करते समय देवी के शरीर पर लगे घावों को मक्खन के मरहम से ठीक किया गया था। पिंडी पर बनाया गया मक्खन का यह टीला सुंदर है। 11 वीं शताब्दी के आरम्भ में, इस मंदिर की स्थापना का समय पता नहीं है, लेकिन इसकी लोकप्रियता थी। इसलिए सन् 1009 में महमूद गजनवी ने इस मंदिर को लूटा था। 1360 में सुल्तान फिरोज तुगलक ने इसे तोड़ डाला। इसे 1905 में कांगड़ा के भूकंप ने बर्बाद कर दिया था। सन् 1908 के आसपास, एक समिति ने इस मंदिर को पुनर्निर्माण करना शुरू किया. सन् 1925 के आसपास, मंदिर अपने वर्तमान वास्तुशिल्प लिए तैयार हो गया। मंदिर के तीन गुम्बद हिन्दू, इस्लाम और सिक्ख धर्मस्थलों की वास्तुकला को दर्शाते हैं, जो इस शिल्प को खास बनाता है।

बैजनाथ (कांगड़ा) में बैजनाथ मंदिर है: धर्मशाला-मण्डी मार्ग पर समुद्र तल से 1250 मीटर की ऊँचाई पर है. यह धर्मशाला से 56 किमी, पालमपुर से 16 किमी और समुद्र तल से 1250 मीटर की ऊँचाई पर है। बैजनाथ धाम बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। 9 वीं शताब्दी में निर्मित शिखराकार शैली के इस मंदिर में पुराना शिवलिंग पूजा जाता है। बैजनाथ पहले कीरग्राम कहलाता था। मंदिर के शिलालेखों से पता चलता है कि मयुक और आहुक नाम के दो व्यापारियों ने इसे शिल्पियों से बनाया था। इस मंदिर को राजा संसार चन्द कटोच (1776-1824) ने अपने शासनकाल में कुछ मरम्मत की गई थी।

चामुण्डा: चामुण्डा में स्थित नंदिकेश्वर मंदिर: पठानकोट-मण्डी राजमार्ग पर धर्मशाला से 15 किमी. पालमपुर-धर्मशाला राजमार्ग पर पालमपुर से 25 किमी। यह समुद्र तल से 800 मीटर की ऊँचाई पर है। चन्द्रधार, चामुण्डा देवी का मूल स्थान, यहां से 16 किलोमीटर दूर है। चर्चित मंदिर बहुत पुराना नहीं है, लेकिन परिक्रमा मैं चामुण्डा मां की सुंदर मूर्ति है। इस मंदिर में भी शिला पर शिवलिंग है। मां का नाम चामुण्डा भी है क्योंकि वह चण्ड और मुण्ड नामक दो दैत्यों को मार डाला था। इस मंदिर पथ पर शिवलिंग और देवी के चरणों से चिह्नित एक प्राचीन शिला है। इसलिए मंदिर को चामुण्डा-नंदिकेश्वर कहा जाता है। इस मंदिर में बाण गंगा के किनारे बने घाटों में स्नान करना भी महत्वपूर्ण है। यहां एक ताल भी इसी उद्देश्य से बनाया गया है।

ठाकुरद्वारा मसरूर कांगड़ा: मंदिर समुद्र तल से 763 मीटर की ऊँचाई पर धर्मशाला से गग्गल नगरोटा सूरियां मार्ग पर 27 किलोमीटर की दूरी पर है। 160 फुट लम्बा और 105 फुट चौड़ा यह मंदिर चट्टान को तराश कर बना है, जिसमें राम, सीता और लक्ष्मण पूज्य हैं। लगभग नवीं शताब्दी में बनाया गया यह मंदिर गुप्त पुरातत्त्व का प्रतीक है।

श्री भूतनाथ मंदिर, मण्डी: शिमला से 158 किलोमीटर, चंडीगढ़ से 202 किलोमीटर और समुद्र तल से ऊँचाई 780 मीटर है। मण्डी शहर के मध्य में यह मंदिर है। सन् 1527 में, राजा अजबर सेन ने शिखर शैली का मंदिर बनाना शुरू किया। इसी वर्ष मण्डी भी राज्य की राजधानी बन गई। शिव का लिंग मंदिर के गर्भगृह में है। यह देव शिवरात्रि के मेले में भी सर्वोच्च देव हैं। इस मंदिर में सुंदर कलाकृतियां हैं। नन्दी प्रांगण में कलापूर्ण प्रतिमा है।

रिवालसर तीर्थ (मण्डी): यह धार्मिक स्थान मंदिर से 24 किलोमीटर दूर है। हिन्दुओं, सिक्खों और बौद्धों के लिए रिवालसर एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थान है। आठवीं शताब्दी के अंत में, पद्मसम्भव यहां लंबे समय तक रहे। इन्हीं के प्रभाव से गुरू गोविन्द सिंह ने तिब्बत में महायान बौद्ध धर्म को जन्म दिया था। सन् 1930 में, राजा जोगिन्दर सेन ने इसकी याद में यहां एक गुरुद्वारा बनाया था। यहां भगवान शिव, विष्णु और ऋषि लोमश की स्तुति भी की गई है। तीन धर्मों के संगमस्थल पर वैशाखी में एक बड़ा मेला होता है, जिसमें सभी धर्मों के लोग भाग लेते हैं।

मालेश्वर महादेव मंदिर, शिमला से 80 किलोमीटर, तत्तापानी से 48 किलोमीटर और समुद्र तल से लगभग 1600 मीटर दूर है। करसोग बाजार से लगभग एक किलोमीटर दूर ममेल गांव में पैगोडा शैली का एक सुंदर मंदिर है जो पत्थर और बड़े देवदार से बना है। मंदिर के गर्भगृह में शिव की अद्भुत प्रतिमा प्रवेश द्वार पर पूरी तरह से धूनि। यह धूनि मंदिर बनने के समय से आज तक जल रहा है, ऐसा माना जाता है। इस मंदिर में भेखल के वृक्ष से प्राप्त सबसे बड़ा तने का ढोल चांदी के खोल में ढाई सौ ग्राम का गेहूं का दाना है।

मनाली (कुल्लू) में हिडिम्बा देवी मंदिर: मनाली से 3 किलोमीटर पर स्थित “ढूंगरी” के जंगल में देवदार वृक्षों के मध्य में 2150 मीटर की समुद्र तल से ऊँचाई है। हिडिम्बा दानव की बहन थी। पांडव अज्ञातवास में ढूंगरी से गुजरे।हिडिम्बा भीम से प्रेम करने लगी और दोनों ने शादी कर ली। बाद में श्रीकृष्ण ने उसे देवी के रूप में पूजा जाएगा और उसे अच्छे काम करने के लिए प्रेरित किया। ढूंगरी के इस मंदिर में देवी का एक मोहरा सन् 1418 का है। 1553 में राजा बहादुर सिंह ने तीन छतों वाला मंन्दिर बनाया था।

बजौरा (कुल्लू) में विश्वेश्वर महादेव मंदिर: बजौरा गांव, जो कुल्लु मण्डी मार्ग पर कुल्लु से 15 किलोमीटर तथा समुद्र तल से 1097 मीटर की ऊँचाई पर है, एक बार आठवीं और नवीं शताब्दी के मंदिर में शिवलिंग की स्थापना हुई। यह मंदिर गंगा, यमुना और दुर्गा की अद्भुत तक्षणकला से बनाए गए चित्रों और शिखर शैली से भरपूर है।

उदयपुर (लाहौल-स्पीति) में स्थित मृकुला देवी मंदिर: मनाली से 150 किमी, केलॉँग से 45 किमी और समुद्र तल से 2650 मीटर की ऊँचाई है। यह चन्द्रभागा नदी के किनारे पर है, उदयपुर में। सन् 1695 में चम्बा के राजा उदय सिंह ने मिरगुल, मरूल या मृकुला नाम से गांव को उदयपुर नाम दिया। यहां एक मृकुला-काली मंदिर है। लकड़ी के छोटे टुकड़ों से ढलानदार छत बनाई गई है। रामायण और महाभारत की कहानियों को दीवारों पर लोक कलाकारों ने चित्रित किया है। विशेषज्ञों का मानना है कि त्रिगर्त की राजकुमारी सूर्यमती ने यह मंदिर बनाया था। जो काश्मीर के अनन्त देव (1028–63) की रानी थी, बौद्धों ने मां को “दोरजे फांग मों” कहा।

चण्डिका देवी, किन्नौर की कोठी: 247 किलोमीटर शिमला से रिकांगपिओ, शिमला से 266 किलोमीटर दूर, कोठी गांव समुद्र तल से 2600 मीटर की ऊँचाई में पिओ और कल्पा के लगभग मध्य में है। Banasura एक असुर देवता था। माना जाता है कि इस देवता ने पूरे किन्नौर को नियंत्रित किया था। उसने हिरमा नामक राक्षसी से शादी की। उन्होंने अठारह पुत्र-पुत्रियां दीं। चंडीका सबसे बड़ी थी। वह कोठी गांव में आकर वहाँ के ठाकुर को मार डाला और वहाँ रहने लगी। उसकी शक्ति देखकर स्थानीय लोगों ने उसे कुल देवी मानकर चण्डिका देवी का मंदिर बनाया। लकड़ी और पत्थर से बना यह मंदिर अद्भुत चित्रकारी के लिए प्रसिद्ध है। मंदिर में कोई मूर्ति नहीं है, लेकिन एक रथ में देवी की प्रतिमाएं हैं।

सराहन (शिमला) में स्थित भीमाकाली मंदिर: यह शिमला से लगभग 184 किलोमीटर और रामपुर से 40 किलोमीटर दूर है और समुद्र तल से ऊँचाई 2000 मीटर है। आज सराहन है, जो पहले शोणितपुर था। इसी स्थान पर भीमाकाली मंदिर है।

यह पहाड़ी वास्तुकला का सबसे अच्छा उदाहरण भी कहा जाता है। मंदिर में देवी की दो प्रतिमाएं हैं: एक कन्या की तरह और दूसरी विवाहित की तरह। दोनों अलग-अलग मंजिल पर हैं। यहां एकमात्र मंदिर भीमाकाली परिसर में है, जहां शृंगार पूजा, भोग के समय पूजा, आरती और शाम लगभग पांच बजे शयन आरती होती है। रघुनाथ और नृसिंह लकड़ावीर हैं।

शिमला में स्थित तारादेवी मंदिर: शिमला-कालका मार्ग पर तारादेवी है, जो शिमला से पांच किलोमीटर दूर है. वहाँ से दो किलोमीटर पैदल चलकर या इसी मार्ग पर तीन किलोमीटर आगे शोधी नामक स्थान पर गाड़ी से जा सकते हैं। यह समुद्र तल से 2205 मीटर ऊँचा है। इस मंदिर में मां तारा की प्रतिमा स्थापित की गई है। • अष्टधातु की मूर्ति में अठारह भुजाएँ हैं। प्रतिमा कला का एक विशिष्ट उदाहरण है। भगवान बुद्ध की नीली किरणों ने मां तारा को जन्म दिया था। इसी मान्यता के कारण बौद्ध भी इस देवी को पूजते हैं। यह शिव मंदिर भी जंगल के मध्य में है, कुछ दूर।

शूलिनी माता मंदिर सोलन शिमला से 45 किलोमीटर दूर है और समुद्र तल से 342 मीटर ऊँचा है। सोलन की देवी मां शूलिनी है। सोलन शहर के पूर्वी भाग में उनका मंदिर है। यहां राजधानी बनाते समय बघाट नरेश ने इस मंदिर की स्थापना की थी, ऐसा कहा जाता है। इसे फिर से बनाया गया है। त्रिलोकपुर (सिरमौर) में बालासुन्दरी मंदिर है, जो नाहन से 24 किलोमीटर दूर तथा समुद्र तल से 550 मीटर ऊँचा है। सन् 1753 में सिरमौर के राजा दीप प्रकाश ने यह मंदिर बनाया था। इसमें राजा ने 84 घंटे बिताए थे। यही कारण है कि इसे चौरासी घंटियों का मंदिर भी कहते हैं। यहां मां बालासुन्दरी की अष्टभुज प्रतिमा और पिंडी है। इस देवी के तीन रूप माने जाते हैं। पास में ललिता देवी, बालासुन्दरी और त्रिभवानी के मंदिर भी हैं, लेकिन हिमाचल प्रदेश और हरियाणा के लोग त्रिलोकपुर की मां पर बहुत आस्था रखते हैं।

 

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