“हिमाचल का इतिहास”
प्रसिद्ध जर्मन विद्वान बैरल ने कहा है कि हिमालय और मानव का जन्म एक साथ हुआ है। अतः हिमालय का इतिहास, जिसका हिमाचल प्रदेश एक अंग है, उतना ही पुराना है, जितना कि मानव जाति का। भारत के अन्य भागों की भांति हिमाचल प्रदेश के इतिहास के बारे में भी लिखित सामग्री का अभाव है। फिर भी वेदों, पुराणों, रामायण, महाभारत के कुछ प्रसंगों, यूनानी इतिहासकारों के सन्दर्भों व संस्मरणों, कलहन की राजतरंगिनि, विशाखदत्त का मुद्राराक्षस नाटक, मुस्लिम इतिहासकारों उतबी व फरिश्ता आदि के ग्रन्थों, मुगल बादशाह अकबर, जहांगीर, शाहजहां एवं औरंगजेब आदि के संस्मरणों, यूरोपीय यात्रियों/अधिकारियों विलियम फिंच जिसने सर्वप्रथम कांगड़ा राज्य का वर्णन किया है, थोमस कोर्यत, फ्रांसिस बर्नियर, फोस्टर, मूरक्राफ्ट, वाइन, अलैग्जेंडर कनिंघम आदि द्वारा लिखित प्रशस्तियों, चम्बा के विभिन्न मन्दिरों व चट्टानों के लेखों (जो अधिकतर राजा मेरू वर्मन 550 के समय के हैं), कुल्लू के निर्मण्ड मन्दिर के ताम्रलेख, कांगड़ा के पठियार और धन्यास के शिला लेखों जिनका समय ईसा पूर्व प्रथम या दूसरी शताब्दी आंका जाता है। कुछ पुराने सिक्कों जैसे कि चम्बा का ‘चकली सिक्का’ (जो राजा साहिल) वर्मन – 620 ई. 640 ई. के समय का है), औदुम्बरों, कुलिंदों आदि संधों के सिक्कों आदि से हम हिमाचल के विभिन्न क्षेत्रों के इतिहास के बारे में कुछ जान पाते हैं। लोकगाथाओं, कुछ सामाजिक प्रथाओं व महलों-दुर्गों आदि के रूप में सुरक्षित सामग्री से भी हमें कुछ ऐतिहासिक जानकारी मिलती है। कांगड़ा के गुलेर, देहरा, ढल्यारा, बिलासपुर, नालागढ़, सिरमौर और शिवालिक पहाड़ियों में किए गए भू-गर्भ अनुसंधान से भी इन क्षेत्रों के इतिहास पर कुछ प्रकाश पड़ता है। अबुल फजल ने नगरकोट और महामैया के मन्दिर का अपने संस्मरणों में वर्णन किया है। इन सभी सामग्रियों के अध्ययन और प्रेक्षण से यह निष्कर्ष निकलता है कि हिमाचलयी क्षेत्र का इतिहास अति प्राचीन है।
प्रदेश के इतिहास को समझने के लिए हम इसे विभिन्न काल खंडों में बांट सकते हैं।
वैदिक काल :- विद्वान आर्यों के भारत आगमन से पूर्व के इतिहास के बारे में अधिक जानकारी हमें उपलब्ध नहीं है। आयों के भारत में आने के बाद वेदों की रचना हुई। ऋग्वेद में वर्णित उल्लेखों से पता चलता है कि जब आर्य लोग हिमालीय क्षेत्र की तराई में पहुंचे तो यहां के यानि वर्तमान हिमाचल प्रदेश के मूल निवासियों, जिन्हें दास, दस्यु, निषाद आदि की संज्ञा दी गई है, ने आर्यों का डट कर विरोध किया। वास्तव में ये लोग कोल, किन्नर, किरात, नाग, चुमंग और डुमंग आदि कबीले ही थे जिनके कुछ वंशज अभी तक हिमाचल प्रदेश के ऊपरी क्षेत्रों, किन्नौर और स्पिति में विद्यमान हैं। ये लोग सिंधु घाटी के द्राविड़ों से भिन्न थे। ये लोग अति बलवान और आसानी से न झुकने वाले थे। इन्होंने अपनी रक्षा के लिए पत्थर के मजबूत किले बनाए थे जिनकी संख्या ऋग्वेद में 99 बताई गई है। जब आर्य लोग सिंधु घाटी से आगे चलकर हिमाचलीय क्षेत्र में शिवालिक की तराई में पहुंचे तो इन कुनबों ने अपने शक्तिशाली नेता ‘राजा शाम्बर’ के नेतृत्व में उनका विरोध किया। राजा शाम्बर का राज्य रावी के पूर्व से गढ़वाल तक माना जाता है इसके समकालीन पहाड़ी राजा चुमुरि, धामी, सुशन, आशुष और पिप आदि थे। आर्यों की ओर से शाम्बर के साथ युद्ध करने वाला राजा भरतवंश से सम्बन्धित दिवोदास था जिसने मैदानों में रावी, सतलुज और व्यास के मध्य 40 साल तक युद्ध किया। यह युद्ध शाम्बर व दिवोदास के मध्य हुआ था। अन्त में दिवोदास ने उदब्रज नामक स्थान पर शाम्बर का वध कर दिया।
इससे ये अनार्य कुनबे हतोत्साहित होकर ऊपरी पहाड़ों की ओर भाग गए। आर्यों ने भी पहाड़ों में इनका पीछा करने में बुद्धिमत्ता नहीं समझी और उनमें ययाति नामक राजा ने यमुना और सरस्वती नदियों के मध्य शक्तिशाली राज्य की नींव रखी जो ययाति के पुत्र के नाम से पुरू राज्य जाना गया। वैदिक काल में पहाड़ों पर आक्रमण करने वाला दूसरा राजा यदुकुलीय कीर्तवीर्य था जिसे स्वार्जुन के नाम से भी पुकारा गया वह एक बड़ी सेना लेकर पहाड़ों में प्रविष्ट हुआ और उसने वर्तमान सिरमौर के क्षेत्र में जमदग्नि ऋषि की गउएं छीनने का प्रयास किया परन्तु जनता ने उसका विरोध किया और उसकी सेना को हरा दिया। इसके उपरान्त कुछ समय बाद उसने फिर आक्रमण किया और जमदग्नि की गउएं छीन लीं। साथ ही उसने एक अन्य ऋषि वशिष्ठ के आश्रम पर आक्रमण किया। जमदग्नि के पुत्र परशुराम ने स्थानीय शासकों को इकट्ठा करके कीर्तवीर्य का मुकाबला किया और उसका वध कर दिया। जब परशुराम वापिस आए तो उन्होंने देखा कि स्थानीय क्षेत्रिय अत्याचारी हो चुके थे व असहाय लोगों पर जुल्म किए जा रहे थे। यह देखकर तो उनके क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने अपने पौराणिक कुल्हाड़े से क्षत्रियों को समाप्त करने की प्रतिज्ञा कर ली। क्षत्रिय लोग अपनी जान बचाने के लिए ऊपरी पहाड़ों की तरफ भाग गए। अब जबकि अन्य कुनबे पहाड़ों में जाकर अपना जीवन व्यतीत करने लगे, ये क्षत्रिय लोग चुप नहीं बैठ सके। इन्होंने अपने आप को समूहों में इकट्ठा कर लिया। कालान्तर में क्षत्रियों को खश के नाम से पुकारा जाने लगा। इन समूहों ने क्षेत्र को आपस में बांट लिया और प्रत्येक समूह के मुखिया को, जो समूह का शक्तिशाली आदमी होता था, ‘माबी’ कहा जाने लगा और उसके क्षेत्र को ‘मवाणा’।
वे आपस में लड़ते रहते थे और अधिक बलवान समूह कमजोर समूह के क्षेत्र पर कब्जा करके उसे आगे-पीछे भगा देता था । कालान्तर में ये समूह या संघ जनपदों के रूप में परिणत हो गए। जब इन में कोई अत्यन्त प्रभावशाली व शक्तिशाली व्यक्ति उठ जाता तो वह एकतंत्रीय प्रणाली अपनाकर सब या अधिकतर संघों को अपने प्रभुत्व में लाकर शासन चलाता था और जब ऐसा व्यक्ति न होता तो ये संघ स्वतन्त्र हो जाते थे।
महाभारत काल :- पद्म पुराण, विष्णु पुराण, वायु पुराण, मार्कण्डेय पुराण तथा अन्य कुछ पुराणों और महाभारत के वन पर्व, शान्ति पर्व, द्रोण पर्व और सभा पर्व आदि में हिमाचल के अनेक क्षेत्रों का वर्णन आता है। पद्म पुराण में जालंधर दैत्य का प्रसंग आता है जिसका विष्णु ने वध किया था और जहां उसके अंग पड़े, उस स्थान का नाम उस अंग से जोड़ा गया। जहां धड़ पड़ा, उसे जालधर पुकारा गया और जहां कान पड़े उसे कानगढ़ पुकारा गया जो बाद में कांगड़ा बन गया। डाक्टर राहुलसांस्कृतायन ने जालंधर दैत्य को वैदिक काल का शाम्बर राजा ही माना है। महाभारत में प्रसंग आते हैं कि उस समय त्रिगर्त (कांगड़ा) का राजा सुशर्म चन्द्र था, जिसने महाभारत के युद्ध में कौरवों की सहायता की थी। पाण्डवों का सुकेत रियासत के पांगणां नामक स्थान से, जो पाण्डव-आंगण का ही विकृत रूप लगता है, सम्बन्ध माना जाता है। कांगड़ा किले का भीमकोट नाम भी पाण्डव भ्राता भीम के नाम पर ही समझा जाता है। भीम ने कुल्लू में हिडम्बा राक्षसी से विवाह किया था और उसके मामा विदुर ने हिडम्बा के भाई ताण्डी की लड़की से, जिसके मुखुर और भोट नामक दो लड़के उत्पन्न हुए थे। जहां मुखर ने ‘मकरस’ के नाम से कुल्लू राज्य की नीवं रखी, भोट ने रोहतांग के पार तिब्बत के भोटी राज्य की स्थापना की।
महाभारत के युद्ध में विजयी होने के बाद जब पाण्डवों ने अश्वमेघ यज्ञ किया तो उसका घोड़ा अर्जुन के संरक्षण में हिमालीय क्षेत्रों में ही घूमा था और उसे यहां प्रागैतिहासिक किन्नर भी मिले कुल्लूत (कुल्लू) और त्रिगर्त (कांगड़ा) के मध्य भाग में जो वर्तमान मण्डी का क्षेत्र था, सेनाबिन्दु (बिन्दुसेन) राजा ने उसका स्वागत किया था। कुल्लू के राजा पर्वतेश्वर बृहन्त, कुलिन्दों (सिरमौर आदि) और कालीकूट (कालका आदि) के वासियों ने अर्जुन की अधीनता स्वीकार की थी। एक अन्य प्रसंग के अनुसार कशमीर, औदुम्बर, दरद और त्रिगर्त आदि के कबीले युधिष्ठिर को कर देने आए थे।
इससे स्पष्ट होता है कि हिमालीय क्षेत्रों में महाभारत के समय जहां शक्तिशाली राजा भी थे, कुनबों के संघों की अलग विद्यमानता थी।
पाणिनि-कालीन जनपद :- इन कुनबों के संघों के बारे में हमें पाणिनि की अष्टाध्यायी से, जिसका रचना काल 700 ई. से 400 ई. के मध्य माना जाता है पता चलता है। इसमें जगाधरी और सिरमौर आदि के निवासियों को कुलिन्द, बिलासपुर-नालागढ़ आदि के क्षेत्र को युगांधर, कांगड़ा को त्रिगर्त, नूरपुर – पठानकोट आदि को औदुम्बर, चम्बा को गब्दिका व कुल्लू को कुल्लूत नामों से पुकारा गया है। उपरोक्त नाम के राज्यों को पाणिनि ने जनपद की संज्ञा दी है। ये जनपद कुछ कुनबों के संघों से मिलकर बने थे जिनके मुखिया को राजा और संघों के मुखिया को महाराजा कहते थे। यह बात इससे प्रमाणित होती है कि कुछ सिक्कों (जो प्राप्त हुए हैं) पर महाराजा, तो कुछ पर राजा और संघ का नाम होता था “राज्ञः कुनिन्दस्य अमोघभूतिस्य महाराजस्य” ।
“जनपदो का इतिहास-1”