“त्यौहार व मेले-4”

“त्यौहार व मेले-4”

“भुंडा, शान्द, भोज”

भुंडा में निर्मण्ड (कुल्लू) का झुंडा बहुत प्रसिद्ध है, जो नरमेध यज्ञ की तरह नरबलि का उत्सव है. सरकार ने अब इस उत्सव में आदमी को शामिल करना बंद कर दिया है और बकरा आदमी की जगह लेता है. २०वीं सदी के आरम्भ तक भुंडा में लोगों को मार डाला जाता था. धुंडा की तिथि से तीन महीने पहले, “वेदा” जाति का जिस भी व्यक्ति इस पद पर चुना जाता है, वह अपने परिवार के साथ गांव के देवता के मंदिर में बुला लिया जाता है और मंदिर के खजाने से भोजन करता है. उत्सव से पहले सभी स्थानीय देवता एकत्र किए जाते हैं और इलाके के बाकी लोगों से भी अनाज और धन जुटाए जाते हैं.

वह व्यक्ति और उसके परिवार के सदस्य एक “बग्गड़ पास” इकट्ठा करते हैं, और चुना गया व्यक्ति 100 या 150 गज का रस्सा अपने हाथ से बाटता है, जो मंदिर में सुरक्षित रखा जाता है. इस रस्से पर न तो कोई जा सकता है और न ही कोई इसके नजदीक जूते पहन सकता है. रस्सा को अपवित्र करने वाला बकरे की बलि देता है. धूमधाम वाले दिन रस्सा पहाड़ी की ऊंची चोटी से नीचे की ओर बांध दिया जाता है. फिर चुने गए वेदा जाति के व्यक्ति को नहला कर पूजा करके बाजगाज के साथ एक लकड़ी की पीढ़ी में जलसे के रूप में बिठा दिया जाता है, जो रस्से से बांध दिया जाता है. यह एक और चीज है जिससे पीढ़ी बच गई है.

संबंधित व्यक्ति पीढ़ी में बैठे हुए बग्गड़ की तरह लुढ़कता चला जाता है. पुजारी और अन्य लोग पीढ़ी से जुड़े रहते हैं. यह सब देखते हुए वेदा और बाकी दर्शक व्यक्ति के संबंधित रस्से के निचले किनारे पर खड़े हैं. रस्सा टूट जाए या कोई व्यक्ति गिर जाए तो वह भी यमलोक जा सकता है. तब भी वह देवता की तरह पूजा जाएगा, और अगर वह सही रास्ते पर पहुँच जाए, तो उसकी देवता की तरह पूजा जाएगी. मंदिर में ले जाया जाता है और धन से भरता है. हम भुंडा उत्सव की उत्पत्ति के बारे में बहुत कुछ नहीं जानते. काली देवी की पूजा से इसका संबंध है, लेकिन कई लोग इसे परशुराम की पूजा से जोड़ते हैं. यह उत्सव कुंभ की तरह बारह वर्ष बाद मनाता है.

“शांत” या “शांद” सुख से जुड़ा हुआ है. हर बारह साल यह समारोह खरा होता है.

इसके बाद उत्सव मनाया जाता है. गांवों में पहाड़ों की चोटियों पर यह उत्सव मनाया जाता है, जहां गांव के देवता को पालकी में लाकर झुलाया जाता है और बकरे और अन्य जानवरों की बलि दी जाती है. चार-पांच दिनों तक धाम (खाना) खिलाया जाता है और सभी दर्शकों और गांव के सदस्यों का स्वागत किया जाता है. इसमें आसपास के गांवों के देवताओं को भी याद किया जाता है.

“नवाला”

गद्दी जनजाति शिव पूजा मनाती है. यह एक पारिवारिक उत्सव है जिसे जीवन में एक बार मनाना जरूरी है. नव-माला, या नौ मालाओं का विकृत रूप नवाला है. नवाला मनाते समय, घर के एक कमरे में गोबर लीपकर चावल के सूखे आटे से चौकोर मण्डल बनाकर शिव की पूजा की जाती है, जहां एक शिव-पिंडी स्थापित की जाती है. शिवपिंडी के सामने गन्दम और दालों के ढेर लगाए जाते हैं, जो कैलाश पर्वत और आसपास की पहाड़ियों को दिखाते हैं. स्थानीय फूलों के हार बनाकर छत से पिंडी के ऊपर लटकाये जाते हैं. सारा कार्यक्रम पुरोहित करता है और नवाला व्यक्ति शिव पिंडी को भेंट चढ़ाता है. कई लोग बकरे को जन्म देते हैं, लेकिन जो लोग हिंसा से बचते हैं, वे नारियल चढ़ाकर ही खुश होते हैं. सारी रात शिव की महिमा का गीत, जिसे “ऐंचली” कहते हैं, गाया जाता है. फिर शिव को भेंट चढ़ाते समय गुर या चेला को बुलाया जाता है.
वह खेल में प्रश्नों का उत्तर देता है क्योंकि वह शिव को स्वयं बोलते हुए मानता है. आधी रात तक कार्यक्रम जारी रहता है. तब गांववासी अपने-अपने घर चले जाते हैं. दूसरे दिन सभी को खाना मिलता है.

पहाड़ी जीवन में मेले त्यौहारों की तरह ही महत्वपूर्ण हैं. हिमाचल प्रदेश के मेले भी गाथाओं और देवताओं से जुड़े हैं, जैसे देश के कई त्यौहारों से. मैदानों में मेलों की तरह पहाड़ों में मेलों का उद्देश्य देवताओं को प्रसन्न करना होता है, न कि दुकानों को सजाकर खरीद-विक्रय करना (विशेष रूप से मध्य और ऊपरी भाग में). एक मेला आमतौर पर बहुत से देवताओं और उनके अनुयायियों का एकत्रीकरण होता है.

मेले लोकप्रिय हैं और हर साल त्यौहारों की तरह कहीं-कहीं मेले होते रहते हैं, जिसमें बच्चे, बूढ़े, जवान, मर्द और स्त्रियां सब उत्साहित होते हैं. हिमाचल प्रदेश के वास्तविक सांस्कृतिक जीवन को समझना चाहते हैं तो यहां के मेले को अवश्य देखना चाहिए. लोग मेलों में अपने-अपने देवताओं को स्थानीय वाद्य-यंत्रों (जैसे नरसिंगा, कानल, शहनाई, ढोलक, डौरू) से सजाते हैं. नए स्थानीय कपड़े पहना जाता है. स्त्री-पुरुष सभी स्थानीय नृत्यों में भाग लेते हैं. इन मेलों में कुश्तियां, तीरंदाजी के मुकाबले और नृत्य-गान के मुकाबले अन्य आकर्षण हैं.

हिमाचल प्रदेश में होने वाले मेलों को मुख्यतः तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:

  1. त्यौहारों और उनके इतिहास से जुड़े मेले
  2. देवताओं या पुराणों से जुड़े मेले
  3. कृषि और व्यापार मेलेयह वर्गीकरण आम है. कई मेले एक या अधिक वर्गों के मेलों के गुणों का मिश्रण होता है.

प्रत्येक त्यौहार या उससे एक दिन बाद में हिमाचल प्रदेश के कई हिस्सों में त्यौहारों और उनके इतिहास से जुड़े मेले आयोजित किए जाते हैं. इन मेलों में से अधिकांश वैशाखी या प्रथम वैशाख के दिन होते हैं. यही नहीं, इस दिन हिमाचल प्रदेश का जीवन मेलों में बदल जाता है. इसलिए इसमें अतिश्योक्ति नहीं होगी. इसका कारण शायद बसन्त ऋतु के मध्य में सर्दी और गर्मी का मौसम है. इस दिन, शायद सर्दी के बाद, मध्य क्षेत्रों में देवताओं को पालकी में बैठकर निकाला जाता है. पुजारी, गुर और अन्य गांववासी ढोलक, शहनाइयां बजाते हैं. सारा वातावरण उत्सुक हो जाता है जैसे ही देवता अपने जनसमूह के साथ मेले में पहुंचता है, जो अक्सर पहाड़ी की चोटी पर होता है. सारा जन समुदाय नाच उठता है और मालाएं बनाता है. उसकी प्रेरणा वह चीज है जिसके साथ है.

वर्तमान दिन, कुग्रसेन और आसपास के क्षेत्रों में मेलों का एक विशेष खेल, “ठोड़े” का खेल होता है. आज भी कहीं-कहीं छिंज या कुश्ती का आयोजन किया जाता है. ये मेलों में भी आयोजित हो सकते हैं और मेलों को प्रभावित कर सकते हैं उत्तरी भारत में बैशाखी मनाया जाता है.

“रिवालसर मेला”

बैशाखी (18 अप्रैल) के दिन और अंतिम रात यह विश्व प्रसिद्ध मेला मण्डी जिला में रिवाल्सर झील के स्थान पर मनाया जाता है. इस झील में नलों के टिब्बे आर से पार तैरते रहते हैं, जिसमें तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार करने वाले पद्मसंभव और उनकी पत्नी तारा की आत्माएं होती हैं. यह बौद्धों का भी तीर्थ था क्योंकि पद्मसंभव ने यहाँ अपने अंतिम दिनों में तपस्या की थी. वैशाखी की रात को हजारों लोग यहां आते हैं और सारी रात नाचते-गाते रहते हैं, फिर प्रातः झील में स्नान करते हैं. इस स्नान को पुण्यपूर्ण मानते हैं. रिवाल्सर हिन्दुओं, सिक्खों और बौद्धों का पवित्र स्थान है. मन्दिर, गुरुद्वारा और बौद्ध मंदिर भी यहाँ हैं. यहाँ की सुन्दरता को बताना कठिन है. इन्होंने इसे ‘धर्म त्रिवेणी’ भी कहा है.

मार्कण्ड मेला

जिला बिलासपुर में, जुखाला के पास मार्कण्ड नामक स्थान पर पिछली रात को रिवाल्सर मेले की तरह मनाया जाता है. मार्कण्डेय स्थान पर तपस्या की गई थी. इस स्थान से व्यास गुफा (बिलासपुर) तक एक भूमिगत सुरंग थी. जिससे मार्कंडेय ने सतलुज नदी में स्नान किया था.

वह तीर्थ भी लोगों की मनोकामनाओं को पूरा करने वाला माना जाता है. वैशाखी की पिछली रात सैकड़ों लोग यहां आते हैं और सारी रात नाच-गाना करने के बाद सुबह ब्रह्ममुहूर्त में मार्कण्ड स्थान पर स्नान करने से खुद को धन्य मानते हैं. “तत्तापानी” मेला भी ऐसा लगता है. इस दिन कांगड़ा, सिरमौर और अन्य स्थानों में भी मेले लगते हैं, लेकिन इनका महत्व स्थानीय है.

यात्रा (प्रथम आसूज) के दिन भी विभिन्न भागों में मेले होते हैं, जिनमें हमीरपुर में लदौर का मेला सबसे प्रसिद्ध है, लेकिन इनका स्थानीय महत्व है.

लोहे: विभिन्न स्थानों पर प्रथम माघ के दूसरे दिन, या “खोहड़ी” का दिन भी मेले होते हैं.

“होली फेस्टिवल”

होली के दिन भी कांगड़ा में मेले लगते हैं. राजा संसार चन्द के समय से चले आने वाले सुजानपुर टीहरा (जिला हमीरपुर) और पालमपुर (कांगड़ा) के मेले सबसे प्रसिद्ध हैं. सुजानपुर क्षेत्र में राजा संसार चन्द ने अपने लोगों के साथ होली मनाया.

“कुल्लू दशहरा”

राम की रावण को हराने के उपलक्ष्य में पूरा देश में ही विजयदशमी का उत्सव मनाया जाता है, लेकिन कुल्लू के दशहरे का देश भर में अलग स्थान है. यह मेला सिर्फ चार बातों से जुड़ा है: त्यौहार, इतिहास, व्यापार और कुल्लू के चौगान में विजय दशमी के दिन से शुरू होकर सात दिन तक चलता है. यह विजयदशमी के त्यौहार से जुड़ा है. यह मेला ऐतिहासिक है 

कुल्लू के राजा ने रघुनाथ को अपनी राजगद्दी सौंप दी थी, ताकि वह एक ब्राह्मण के शाप से बच सकें. यही कारण है कि दशहरे के पहले दिन ढालपुर के मैदान से रथ पर रघुनाथ की यात्रा निकलती है और जिले के अन्य हिस्सों से मेले में लाए गए सभी देवता रघुनाथ को श्रद्धा के फूल चढ़ाते हैं. मेले में देवताओं को हर दिन सवेरे और शाम पूजा जाती है, उन्हें जलूस में ले जाया जाता है. आखिरी दिन, रघुनाथ जी को प्रयास नदी के किनारे से जलाया जाता है, लकड़ी पास जलाया जाता है और शंका जलाया जाता है. रघुनाथ जी की मूर्ति को सुल्तानपुर में उनके मंदिर में ले जाया जाता है और रव को अपने स्थान पर रखा जाता है. शेष देवता अपने-अपने मंदिरों में वापस आ जाते हैं. दमोदर दास नामक व्यक्ति ने जुलाई, 1651 ई. में रघुनाथ जी की प्रसिद्ध मूर्ति अयोध्या से लाया था. वैष्णव धर्म को कुल्लू के राजा जगत सिंह ने वैरागी कृष्ण दास के प्रभाव में अपनाया था, जिसमें विष्णु को सर्वोपरि माना जाता है और राम को विष्णु का अवतार बताया जाता है. इसलिए, अन्य सभी देवताओं को रघुनाथ के नीचे स्थान दिया जाता है.

“मंदिर शिवरात्रि मेला”

यह मेला इतिहास, त्यौहार और व्यापार से जुड़ा है, जैसे कुल्लू दशहरे की तरह मण्डी जिले में शिवरात्रि के दिन से शुरू होकर सात दिन चलता है. दशहरे का मेला भी इसके पीछे है. 1648 ई. में, मण्डी के राजा सुरज सिंह ने अपने 18 पुत्रों की मृत्यु से दुखी होकर राजगद्दी माधो-यानि श्रीकृष्ण को सौंप दी. इसी दिन से मेला मनाया जाता है. कुल्लू की तरह मण्डी जिले से सभी देवी-देवता पालकियों में सवार होकर बाजों-गाजों सहित मण्डी पहुंचते हैं और माधो राय के मंदिर में श्रद्धा के फूल चढ़ाकर महादेव के मंदिर में शिवजी को नमस्कार करके मण्डी के पहुल मैदान में पहुंचते हैं.फिर सात दिनों तक रंगारंग कार्यक्रम जारी रहता है. देवताओं के “गुर” खेल में आने वाले वर्ष को बताने के लिए अंतिम दिन से पिछली त्रिजगराता रखी जाती है. यह भी विश्वव्यापी पर्व घोषित किया गया है.

“चम्बा का मिंजर मेला”

चंबा में कई मेले और त्योहार मनाए जाते हैं, लेकिन मिंजर मेला सबसे अलग है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध इस मेले ने हिमाचल और देश भर के लोगों को भी आकर्षित किया है. हर साल श्रावण महीने के दूसरे रविवार को मेला शुरू होता है और सप्ताह भर चलता है. तीसरे रविवार को मेला मिंजर राखी नदी में प्रवाहित होकर समाप्त होता है.

रघुवीर, राजकुल देवता, और लक्ष्मी नारायण, चंबा के मुख्य देवता, मेले की शुरुआत करते हैं. स्थानीय लोग गेहूं, धान, मक्की और जौ की बालियों को मिंजर कहते हैं. अब जरी या गोटे से बनाई गई बालियां मिंजर या मंजरी कमीज के बटन पर डाल दी जाती हैं. एक सप्ताह के बाद बालियां उतारकर रावी नदी में डाल दी जाती हैं.

सूर्यवंशी राजा पृथ्वी सिंह ने शाहजहां के शासनकाल में रघुवीर को यहां लाया क्योंकि वह भी सूर्यवंशी था. शाहजहां ने रघुवीर जी को मिर्जा साफी बेग (राजदूत) के रूप में भेजा, साथ में छत्र और चिन्ह भी भेजे. मिज़ साहब जरी गोटे में बहुत अच्छे थे. पहले उन्होंने गोटे जरी की मिंजर बनाकर राजा पृथ्वी सिंह, रघुवीर जी तथा लक्ष्मीनारायण को भेंट की. तब से मिर्ज़ा साफी बेग का परिवार ही रघुनाथ जी तथा लक्ष्मीनारायण को मिंजर भेंट करता आ रहा है. इन सब बातों से मेले का धर्मनिरपेक्ष रंग प्रकट होता है. रियासत काल में चंबा के राजा ने चंबावासियों को मिंजर ऋतु के फलों और मिठाई से भेंट दी. आजकल जिला प्रशासन यह काम करता है. राजा ने मिंजर परिवार के मुखिया को भेजा था. रियासती काल में कोई सांस्कृतिक उत्सव या खेलकूद नहीं हुआ था. अब उन्हें मेले में शामिल करने से मेले का रंग बदल गया है. गीत, संगीत और कुंजड़ी मल्हार पहले ऋतु में घर-घर में गाए जाते थे, लेकिन अब यह मंच पर कुछ स्थानीय कलाकारों द्वारा गाया जाता है. इस संस्कृति को लुप्त होने का खतरा है क्योंकि लोगों को अधिक समय नहीं दिया जाता है. पुरानी कहावत कहती है कि मिंजर मेला रियासत के राजा ने कांगड़ा के राजा पर जीत दर्ज करने के उपरांत घर लौटने पर उन्हें मक्की, धानु (इस मौसम की फसल) भेंट कर स्वागत किया. मिंजर मेले का मुख्य जुलूस राजमहल, “अखंड चंडी” से रावी नदी के तट पर पहुंचता है, जिसमें चंबा के प्रमुख लोगों को दी जाती है. बाद में राज्यपाल, मुख्यमंत्री और राजनीतिक नेता पैदल चलकर राव नदी के तट पर पहुंचते हैं. मिंजर लाल कपड़े में नारियल डालकर एक रुपये की मिठाई बांधकर उसे विसर्जित करता है.

फिर वहां विसर्जन स्थल पर ही कुंजड़ी मल्हार गाते हैं. सन् 1943 तक, मिंजर और एक जीवित भैंसा रावी में प्रवाहित किए गए. माना जाता था कि अगर वह नदी के दूसरे छोर तक पहुंच गया तो राज्य को कोई संकट नहीं होगा, लेकिन अगर वह वापस आ गया तो यह बहुत बुरी स्थिति का संकेत था. चंबा से विभाजन के समय पाकिस्तान गए लोग भी मिंजर के दिन उत्सव मनाते हैं. वे खुशी व्यक्त करने के लिए रावी नदी के तट पर मिंजर विसर्जित करते हैं और कुंजड़ी मल्हाड़ गाते हैं. 1948 से अब तक मिंजर के जुलूस की अगवाई श्री रघुवीर जी ने की है. 1955 से पहली बार चंबा में नगर पालिका ने केसरी रंग का झंडा फहराया. ध्वजारोहण के बाद ही खेलकूद प्रतियोगिताएं होती हैं, जो पूरे सप्ताह चलती हैं.

“सिरमौर का रेणुका मेला”

सिरमौर का रेणुका मेला, जन्मदग्नि ऋषि की पत्नी और परशुराम की मां रेणुका से संबंधित है. परशुराम को देवता का अवतार मानते हैं. कार्तिक शुक्ल पक्ष की दशमी से द्वादशी तक, रेणुका झील और रेणुका मंदिर में यह मेला तीन दिन चलता है. लोक गाथा में कहा गया है कि जब साहस्त्रार्जुन ने जमदग्नि को हराया, तो उसने ऋषि पत्नी को मार डालना चाहा. ऋषि पनि ने पास की रानी कुंड में छलांग लगा दी, जो बाद में झील बन गई. रेणुका ने अपने पुत्र परशुराम को बदरीनाथ में तपस्या करते हुए याद किया. उसने आकर साहस्त्रार्जुन को कुल्हाड़े से मार डाला, फिर ऋषि और उनकी पत्नी वहाँ रहने लगे. परशुराम ने मां की मांग पर हर वर्ष वहां आकर उनसे मिलने का अनुबंध किया. यही कारण है कि हर साल जामू गांव से परशुराम देवता, अन्य देवताओं के साथ वहां आता है और तीसरे दिन वापस चला जाता है. वहाँ मेला लगता है. एक और गाथा कहती है कि परशुराम ने अपने पिता के कहने पर अपनी माता को मार डाला था और फिर उसे बचाया था. यह देश भर में एक मेला घोषित है.

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